Sunday, December 23, 2007

"चहक चहक महक महक
ख़ुशी छलक छलक"

Wednesday, December 12, 2007

प्रधान मंत्री
भारतीय सरकार से जुड़े हुए शब्द

Monday, December 10, 2007

शब्द १६६७

वर्क साईटिड:

आधुनिक शादी.” एन. दी.टी.वी। राजश्री.कॉम

बोक्सोफ्फिसरेपोर्ट्स.कॉम

“गट्सी यश राज लेडीज़” २७ अगस्त २००७। रेदिफ्फ़.कॉम



बिब्लीओग्रफी:
अमर अख़बार एन्थोनी। १९७७। निर्देशक: मनमोहन देसाई। अभिनेता: नीतू सिंह, परवीन बबी, अमिताभ बचन, ऋषि कपूर। कमालिस्तान स्टुडीओस।
एक रिश्ता । २००१। निर्देशक: सुनील दर्शन। अभिनेता: अक्षय कुमार, अमिताभ बचन, जूही चावला, राखी, मोनीश बहल। श्री कृष्णा इन्तेर्नाशानल

चांदनी। १९८९। निर्देशक: यश छोपरा। अभिनेता: ऋषि कपूर, चांदनी, विनोद खन्ना, वहीदा रहमान। यश राज फिल्म्ज़।

दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगी। १९९४। निर्देशक: आदित्य छोपरा। अभिनेता: शाहरुख़ खान, काजल, अमरीश पूरी, फरीदा जलाल, अनुपम खेर। यश राज फिल्म्ज़.

हम आपके हैं कौन। १९९४। निर्देशक: सूरज बर्जतिया। अभिनेता: सलमान खान, माधुरी दिक्षित, अलोक नाथ, रीमा लागू, अनुपम खेर। राजश्री।

कभी कभी। १९७६. निर्देशक : यश छोपरा। अभिनेता: अमिताभ बचन, राखी, शशी कपूर, वहीदा रहमान, नीतू सिंह, ऋषि कपूर। यश राज फिल्म्ज़।
कभी ख़ुशी कभी घम। २००१। निर्देशक: कारन जोहर। अभिनेता: शाह रुख खान, काजल, अमिताभ बचन, जया बचन, करीना कपूर, ऋतिक
रोशन। धर्मं प्रोडुक्ष्न्स

कल हो ना हो। २००३।निर्देशक: निखिल अडवानी। अभिनेता: शाह रुख खान, जाया बचन, प्रीती जिंटा, सैफ अली खान। धर्मा प्रोदुक्षंस

लम्हे। १९९१। निर्देशक: यश छोपरा। अभिनेता: अनिल कपूर, श्रीदेवी, वहीदा रहमान, अनुपम खेर। यश राज फिल्म्ज़।

राम लखन १९८९ निर्देशक: सुभाष घई। अभिनेता: अनिल कपूर, माधुरी दिक्षित, जैकी श्रोफ्फ़, डिम्पल कापडिया, राखी. मुक्त आर्टस

प्रेम रोग। १९८२। निर्देशक: राज कपूर। अभिनेता: ऋषि कपूर, पदमिनी कोह्लापुरी, शमी कपूर, नंदा, तनुजा। आर। के फिल्म्ज़।

रंग दे बसंती। २००६। निर्देशक: राकेश ॐ प्रकाश मेहरा। अभिनेता: आमिर खान, सोहा अली खान, सिद्धार्थ, शर्मन जोशी, किरोन खेर, अतुल कुलकर्णी।

Wednesday, December 5, 2007

लड़ाई और झगड़ा

जहाँ भी देखों झगड़े हो रहे हैं। कई घरों मे बहुत झगड़े, दोस्तों और सह्पाटी के बीच लड़ाईयां। देशों और नेताओं मे युद्ध हो रहें हैं। और सबसे बुरी बात है कि मैं पूरी तरह इन पर गुस्सा भी नहीं कर सकती. मैं पहले मानती थी की कि चुनाव जीतने के लिए ख़ुशी भरे एड और सिर्फ कानून और अपने सोच पर विचार करना काफी है। हम यह 'मड-स्लिंगिंग' यह आरोप लगाना जो इन्होने बहुत पहले किया हो उसको बाहर जनता के सामने लाना और एड मे रंगीले तरीकों से पेश करना यह हम राजनीती से निकाल सकते हैं. लेकिन मैं बड़ी हो चुकी हूँ। मैंने ऐसे २ चुनाव देखे है जहाँ लोगों ने 'पोसिटिव चुनाव' की घोषणा की और उनके पक्ष ने सिर्फ अपने गुणों के बारे मे बखान किया। उन्होने दूसरे पक्ष पर ठोकर नहीं मारी। दोनो अभीलाशी चुनाव हारे। मेरा तजुर्बा कम है लेकिन मे भी उन अभीलाशीयों के लिए सच नेगातिव एड सोच सकती हूँ जो उन्हें जीता सकता। मेरा मानना है कम से कम एक चुनाव मे दूसरे पक्ष ने नेगेटिव काम्पेनिंग से उन्हें हराया।
और दोस्तों के बीच भी यह कहना कि कभी लड़ो मत, गलत है। क्योंकि बात को अंदर रखने से दूरियां पैदा हो जातीं हैं। परिवार मे भी। मेरे एक दोस्त और मैं दस साल से दोस्त हैं, और हम एक बार भी नहीं लड़े। इस साल हम लड़ने के नजदीक आए दो बार। पहली बार हम जिस बात पर लड़ने के लिए तैयार थे उससे दूर रहना शुरू किया। दूसरी बार मुझे उसका एक वाक्य बहुत बुरा लगा। मैं कुछ कहना चाहती हूँ लेकिन मुझे डर है की वह बुरा मान जाएगी। मेरे बहन और मे एक बार लड़े। एक दूसरी के ऊपर खूब चिलाए। लेकिन उस के बाद और भी नजदीक आए क्योंकि हमने क्रोध निकाल दिया और जो मैं गलत कर रही थी मैंने सुधारा और जो वह कर रही थी उसने। तो इस से हमारी लड़ाई का कुछ फैदा हुआ। और हम एक दूसरे से नाराज़ भी न हुए।
मेरा इस पोस्ट के बिल्कुल यह नहीं मतलब की लड़ना चाहिए। यह गलत है। लेकिन बात को अंदर भी नहीं रखना चाहिए। मैंने और अपनी बहन ने कभी गाली का इस्तिमाल नहीं किया लेकिन हमने यह कहा कि जो तुम यह कर रहे हो मुझे बहुत बुरा लग रहा है। और मैंने सब कुछ नही बताया, लेकिन इतना बता दिया कि मैं उससे कम नाराज़ होती हूँ। हमे एक सीमा के अंदर कहने और लड़ने का हक हे। यह सीमा है कि कम से कम लड़ें
और लड़ते समय सिर्फ कम से कम बात कहनी चाहिए और वह भी सोचके।
चुनाव के अभीलाशीयों को भी एक सीमा पार नहीं करना चाहिए लेकिन जब तक जनता ज़्यादा सोचने नहीं लगती हमे नेगातिव काम्पेनिंग का इस्थिमाल करना ही पडेगा।

Saturday, December 1, 2007

रोहन को क्यों नहीं खोजा? जया बादमे पति को ठुकराती है लेकिन पहले वह जानती है कि बेटा अंजली से प्यार करता है पर नैना से सगाई के रस्मों को आगे बढ़ने देती है। यह सिर्फ मैं नहीं कह रही, रेडिफ.कॉम ने कुछ दिन पहले लिखा था की ज्यादातर यश राज, २००६ के सबसे सफल फिल्म इंडस्ट्री, के हिरोईन कितना दुर्बल हो गयी है (गट्सी यश राज लेडीज़)। और यह हमने बहुत फिल्मों मे देखा है।
यह पहले नहीं होता था। अगर आप 'राम लखन' देखेंगे तो इसमे कुछ और ही होता है। जहाँ जया पति की गलतीयों को चुपचाप सहन करती हैं, गीता, डिम्पल, आगे बढ़ कर कुछ करती है। हर फैसले मे मदद करती है। यहाँ तक कि जब राम और लखन लड़ रहे होते हैं वही लड़ाई रोकती है। और उस कमरे मे मर्द भी शामिल थे जो लड़ाई रोकते अगर गीता आगे न बढती। लेकिन गीता आगे बढ़ी। इस ही फिल्म मे माधुरी ने भी बाप के गलत फैसले का विरोध किया और "राम जी बढ़ा दुःख दीना" गाने से अपने से निर्णय लिया और कुछ किया। 'कभी कभी' मे भी नीतू सिंह ने अपने से निर्णय लिया और चल पड़ीं माँ को ढ़ून्डने। 'प्रेम रोग' मे बड़ी माँ ने दो तीन बार मर्द के फैसले को ठुकराया. तो औरतों को दुर्बल दिखाना नई बात नहीं है लेकिन यह रोक दिया गया था और सिर्फ अभ फिरसे आ रहा है। पहले कभी कभी मर्दों को दुर्बल दिखाते थे। 'कभी कभी' यह फिल्म के बारे मे सोचना उचित है क्योंकि यश राज फिल्म्ज़ जिसने दिलवाले बनाया और आज कल बहुत सफल फिल्मों के पीछे है, इसी ने 'कभी कभी' बनाया और इस फिल्म मे अमिताभ खलनायक है, वह अतीत को नहीं छोड़ सकता था और राखी छोड़ देती है और सफल बनती है। और अमिताभ को औरत की आवश्यकता होती है। 'चांदनी' मे भी ऋषी कपूर को श्रीदेवी की मदद चाहिए होती है। और जहाँ 'कल हो न हो' में नैना, दिलवाले मे सिमरन, रो कर कुछ नहीं करती, 'लम्हे' मे विरेन रोता है घम मे डूबा रहता है, लेकिन कुछ नहीं करता।
यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि फिल्में लोगों पर बहुत असर करते हैं। एक वजह, यह है कि भारत मे अनपढ़ की संख्या ज़्यादा है। रामानंद सागर के 'रामायण' मे अरुण गोविल ने रामचंद्र को पेश किया। उन्होने कहा कि इस के बाद कई लोग उनको भगवान मानने लगे (फ्रॉम रील लाईफ टू रियल लाईफ )। गोविल भगवान नही है। लेकिन कई लोग जिनकी जानकारी कम है उनको फर्क पता नहीं चला कि क्या सचा है और क्या नकली. मैं यह कहानी इस लिए दोहरा रहीं हूँ ताकि आप को पता चले कि फिल्मों का क्या असर होता है। इस असर के कारण ही यह प्रोजेक्ट का कुछ माईना है। और असर कि वजह से हम आर्ट फिल्म, जो लोग बनाते है लेकिन ज़्यादा कमाती नहीं है क्योंकि कम दर्शकों होते हैं, के बारे मे बात नहीं कर रहे। उन फिल्मो मे बहुत ऐसे चीजों पर विचार होता है लेकिन यह जनता तक नहीं पहुँचता। इस लिए इन का असर कम होता है। हिन्दुस्तान मे बहुत लोग बॉलीवुड, जो मेनस्ट्रीम सिनेमा है, वह देखते हैं।
प्रोजेक्ट मे दिखाया गया है कि निर्देशक को सोचना चाहिए कि फिल्म मे क्या कर रहें हैं। सब ही को पता है कि फिल्म मे पहनाव समाज पर बहुत असर करता है। 2001 के देवदास के बाद "आइश्वरिया सेटें" बहुत बिकने लगीं , मेरे पापा ने मेरे लिए भी एक खरीद के दिया था। कभी बुरे चीज़ें भी फिल्म से सीखा जाता है और बहुत बार निर्देशक कहते हैं, जब लोग उन्हें कसूरवार मानते हैं, कि मैंने तो सिर्फ फिल्म बनाया था। इस तर्क मे भी बुनियाद है, लेकिन यह पूरी सफाई नहीं हो सकती। निर्देशक को सोचना चाहिए कि उनके फिल्म का क्या असर हो सकता है। और इस लिए मैं समस्या बताने मे इतना वक्त बिता रही हूँ।
यह पेपर बताता नहीं है कि महिलाओं को बुरी तरह पेश क्यों किया जा रहा है। आश्चर्य कि बात तो यह है कि औरतों को दुर्बल रोती हुई, और मर्दों पर निर्भर १९९४ के बाद ही दिखाया जा रहा है। एक बदलाव का कारण है 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'हम आपके हैं कौन' की सफलता.इन दोनो फिल्मों ने रेकॉर्ड तोड़कर कमाया। तो इसके बाद निर्देशक ने सोचा कि बहुत लोगों यही चाहते हैं। लेकिन उनका भी कोई जिम्मेदारी है। उनके पता होना चाहिए कि औरतों को ऐसे पेश करने से लोगों सोचने लगेंगे कि औरतों इसी के काबिल हैं हमेशा रोती rahtee है । वह यह नहीं जान पाएँगे, कि जैसे अमर अकबर एन्थोनी मे नीतू के बहुत रंग थे, वैसे बहुत औरतों के हैं। वह घर चला सकती हैं, काम भी कर सकती हैं और लड़ भी सकती हैं kaash हम यह फिल्म मे भी देख सकते ।

नए बॉलीवुड और महिलाएं।

बॉलीवुड दुनिया का सबसा बढ़ा फिल्म इंडस्ट्री है। और इसमे बहुत गुण हैं, इन मे से एक कि दुनिया मे बॉलीवुड हिन्दुस्तानी सिनेमा का नाम लाता है। लेकिन मेरी उससे एक बहुत बड़ी शिक़ायत है। वह महिलाओं को कैसे पेश करने लगा है। ११९४ के बाद औरतों को यह बहुत असहाय और दुर्बल रुप मे दिखातें हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि पहले ऐसे कम होता था। १९७० और १९८० की दशक मे हिट, और हिट की परिभाषा है कि फिल्म ने बहुत पैसा कमाया यह आज भी जन्ता उन फिल्मों को देख रही है, फिल्मों मे औरत बहुत मज़बूत होती हैं और खुद फैसले लेती हैं। अल्प संख्यक लोगों जैसे मुसलमानों को जिस तरह पेश किया गया है उससे मुझे ज्यादा फर्क नज़र नहीं आया सिवाय की अब कई फिल्मों मे उन पर हुए ज़ुल्म का ज़्यादा ज़िक्र होता है और फिल्मों मे उनका रोल ज़्यादा, लम्बा और गहरा, होता है। बस एक भिन्नता है जो औरतों और मुसलमानों दोनो के चित्रण मे दिखता है। आज के कई निर्देशक सफल फिल्म बनाते हैं लोगों को दिखाने के लिए कि उन लोगों पर क्या और कैसे ज़ुल्म हो रहें हैं। इस पेपर मे मैं दो ऐसे फिल्म के बारे मे भी जिक्र करूंगी। लेकिन ज़्यादातर फिल्म के विश्लेषण से दिखाउंगी कि आज के सिनेमा में औरतों को दुर्बल दिखातें हैं और यह बुरा क्यों हैं। १९९४ मे 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' और 'हम आपके हैं कौन' कि सफलता ने इंडस्ट्री का हुलिया ही बदल दिया था। दोनो फिल्मों ने रेकॉर्ड्स तोड़ दिए थे (बक्सोफ्फिकेंडिया.कॉम)। और उनकी खास बात? जहाँ और निर्देशक खून-खराबा, कम कपडे और रंगीली फिल्में बना रहे थे ये दोनो फिल्में परिवार के साथ देखने योग्य थे और हैं। 'दिलवाले' मे एक खून-खराबा का सीन भी है लेकिन छोटा है। और इस के इलावा दोनो फिल्मो का असर ख़ुशी, संस्कृति और संस्कारों पर पहला है। फिल्म मे लड़कियाँ हमेशा पूरे कपड़े पहनती हैं। एक और भिन्नता। दोनो लड़कियाँ दुर्बल हैं। सिमरन पापा के आज्ञा के खिलाफ नहीं जाती। जब पापा घोषित करते हैं कि वह उन्के साथ पंजाब जाकर कुलजीत से शादी करेगी, वह भाग के राज के पास नहीं जाती। बल्की सिर्फ रोती है। राज की राह देखती है और समझती है कि सिर्फ राज ही मुझे इस शादी से बचा सकता है। 'हम आपके हैं कौन' मे निशा कुछ नहीं कहती जब निशा को पता चलता है कि माता-पिता ने समझा कि उसने राजेश के साथ शादी करने के लिए सहमती दी है जबकी वह प्रेम से प्यार करती है। इस के इलावा भी इस फिल्म मे जो औरत मन की बात बोलती है वह है मामी और वह खलनायक के रुप मे आती है। पूजा, निशा की दीदी, एक और आदरणीय औरत हैं और वह अपना त्याग करती हैं। तो इन दोनो फिल्मों मे एक समानता है जिसने उन्के बाद आने वाले फिल्मों पर बहुत असर डाला था। और मेरा मानना है कि इस लिए १९९४ के पहले के और बाद के फिल्मो मे इतनी असमानता है।
१९९४ के बाद सफल फिल्मो मे औरत दुर्बल होती हैं और मर्द की प्रतीक्षा करती हैं। 'कल हो ना हो' मे नैना अपने जीवन को सुधार न सकी। अमन आया और उसने सब कुछ ठीक कर दिया। नैना, यह जेनी, नैना की माँ, साहस क्यों न उठा पाई परिवार के जीवन मे ख़ुशी लाने के लिए? अमन ने क्या किया? हिम्मत करके दादी को उसके बेटे का सच बताया। उसने दिमाग लगा कर व्योपार मे का कुछ उपाय सोचा। 'राजा hइन्दुस्तानी', जो १९९८ की हिट पिक्चर है, उसमे राजा बच्चा चुरा लेता है। करिश्मा क्या कर पाती है-कुछ नहीं, वह रोती है और उससे विनती करती है और पापा की मदद मांगती है। 'एक रिश्ते' मे भी लड़कियां लड़कों की प्रतीक्षा करतीं हैं जब भाई आता है तब ही कुछ बदलाव आता है। 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' मे पूजा रोहन की मदद करती है लेकिन उसने जीजाजी के लिए

माँ-बाप का आदार

सोमवार के इम्तिहान के लिए मैं चीफ की दावत कहानी पढ़ रही थी फिरसे। और मुझे फिरसे उस बेटे को थाप्पर मरना चाहा। कोई माँ के साथ ऐसा बर्ताव करता है? नहीं, मुझे कहना चाहिए कि ऐसा बर्ताव क्यों लोग करते हैं और क्यों? मेरे भी जान पहचान मे ऐसे लोग हैं जो अपने माँ यह सास के साथ ऐसे बदतमीजी करतें हैं। एक बार तो मुझे लगा कि मैं उस के बेटी से कुछ कह ही दूंगी। वह माँ को छोड़ देतीं है। बहुत काम करवाती है। यहीं कहानी मे भी होता है, बेटा माँ को आदेश देता हैं! यह उल्टी गंगा नहीं हुई क्या?
माँ बाप प्यार से हमे पालते हैं। इस कहानी मे माँ ने अपने सारे जेवर बेटे के पढाई के लिए बेच दिए थे। माँ इसका एक बार जिक्र करती है जब बेटा कहता है कि तुम कुछ चूड़ी-वूडी क्यों नहीं पहना। माँ का शुक्रियादर करने के बजाए वह झुन्झुला उठता है। आपने जो पैसा डाला उस का कुछ रिटर्न भी तो मिला! मैं दुगना खरीद के दे सकता हूँ। ऐसे बात करना उसको शोभा नहीं देता। माँ को वह इतना डराता है। कभी मुझे लगता है मुझे ऐसे माँ और बाप के लिए घर खोलना चाहिए। अगर आप को लगता है कि आप के माता-पिता आप के लिए बोज हैं उनपे ज़ुल्म मत करों, यहाँ छोड़ दो और मे उनका देख्बाल करूंगी। रवी चोपडा के बघ्बान मे भी यही कहानी दिखाया गया। राज ने सारा पैसा बच्चों पर खर्च दिया और सोचा फिर रिटायर करके बचे के साथ समय बिता लूँ। लेकीन बचों को लगा कि हाए कैसी आपाती आ गयी। उनको कुछ कहने के बजाए, यह ज़्यादा अच्छा होता, वह ज़ुल्म वरते हैं। चीफ की दावत मे भी माँ कहती है कि हरिद्वार भेज दो, यह भाई के पास, लेकिन न। नौकर चाहिए यह लोग क्या सोचेंगे। लोगों कि परवाह मत करों। पता ही चल जाता है कि ध्यान कौन रख रहा है और दिखावा कौन।
माँ और बाप के वापिस देना हमारा कर्तव्य है अगर उनको प्यार देकर इस कर्तव्य का पालन नहीं कर सकते तो झूट भी मत बोलो।

Friday, November 30, 2007

होटल मे खाना

पहले, जो अमरीकी लोग मेरे ब्लोग पड़ते है-- आज और कल बहुत बरफ पड़ने वाली है। कई समाचारपत्रों मे लिखा था कि बिजली भी जा सकती है। जिनको नहीं पता वह शायद हस रहे होंगे। दुनिए के कई जगाओं मे बिजली अक्सर जाती रहती है। लेकिन अमरीका मे बहुत सर्दी हो रही है और हीटर और पानी भी बिजली के ना होने से ही चलते हैं। तो सब को तय्यारी करने चाहिए। मैं अपनी मोबायल को तय्यार रखूंगी।
मैं आज होटल मे खाना खाने के अनुभव के बारे मे बात करूंगी। एक जगह जो मुझे सब से अच्छा लगता है, मैं पहले अपने माता-पिता के साथ ही गयी हूँ। और जब गयी हूँ हमेशा जल्द खाना लाते हैं। लेकिन आज उनको तकरीबन घंटा लग गया। उस ने बहुत माफी मांगी लेकिन मुझे बुरा लगा मैं अपने माता-पिता के दोस्त के बेटी, जो अभी मेरे घर पर ठहरी हुई है, उसे वहाँ ले गयी थी। मैंने बहुत गर्व से कहा था कि यह जगह खास है। दाम कम हैं, खाना अच्छा है, और सर्विस बहुत अच्छी है। और आज ही यह हुआ। मैंने कुछ इस के बारे मे बात किया। उसने कहा अक्सर यह छोटों के साथ होता है। तुम पहले अपने माँ-बाप के साथ आए होगे। अगर ऐसे वक़्त लगा और माँ-बाप होता वह बहुत उतेजित होते। हमे थोडा बुरा लगा लेकिन हम बात करके समय बिता रहे थे। तो उन्होने सोचा होगा शुक्रवार है, बहुत लोग हैं, बडे दंतेंगे, यह लड़किया जाने देंगी। कईं लोगों यह भी मानते हैं कि बच्चे उधार कम देतें हैं। लेकिन मैं हमेशा १२ और पंद्रह प्रतीषद के बीच मे देती हूँ, और दीदी ने तकरीबन बीस प्रतीषद दीए। तो उनका यह मानना गलत है कि बच्चे हमेशा कम उधार देंगे यह मस्ती करेंगे।

Tuesday, November 27, 2007

ठंडक

मैंने सोचा कि आज सुबह मैं ठंड, इसके अनुभव, और ऐसे चीजों पर लिखूं क्योंकि यहाँ पर बहुत ठंड हो रही है। तो, मैं यहाँ बैठ कर ब्लोग लिख रहीं हूँ और महाभारत को राजश्री.कॉम से सुन रहीं हूँ। इस वक्त मैंने इस पर लिखने का निर्णय ले लिया।
ठंड बहुत कम लोग से बर्दाश्त होता है। खासकर जब बर्फ सड़क पर आधी पिघली हुई और आधी जमी हुई है। इससे चलने मे बहुत कठिनाए होती हैं। कल मेरे पैन्ट पूरी तरा भीग गया था। जुराब सुबह ही भीग गए थे और रात को इस के कारण बहुत तड़प हो रही थी। दिन मे एक दो बार मुझे लगा कि मैं वापस कमरे मे चली जाऊं। एक बार तो क्लास बंक करने मे तो कोई बुराई न है न? लेकिन मैंने साहस बडाकर क्लास मे कदम रखा। आज कल से भी ज़्यादा ठंडा होगा और आज बंक करना आसान होगा। एक ही क्लास है और वह मेरे लिए आसान है. लेकिन मैं नहीं करूंगी। क्यों? पहले- तीन महीनों के लिए ठंड होगी और तीन महीनों के लिए तो मैं क्लास नहीं बंक कर सकती। लेकिन सब से बड़ा कारण, मुझे लगता है कि ठंड हमारी परीक्षा है। इस से भगवान देख त है कि हमारा निश्चय कितना अटल हैं। हम क्या क्या पार करके दुनिया मे कुछ कमाएँ। हम इस दुनिया मे सिर्फ नाचने नहीं आए। हमे कुछ कमाना है कुछ कर दिखाना है।
ठंड हमे यह मौका देता है, दिखलाने के लिए कि हमारा निश्चय कितना द्रिड है।

Saturday, November 24, 2007

कृतज्ञता और inchanted

मेरे पास एक अच्छा परिवार है। इस से मेरे पास एक अच्छा 'सुप्पोर्ट सिस्टम' है। मुझे मिशिगन जैसे विश्वविध्याले पर पढ़ने का अवसर मिला है। मुझे लगता है कि इन चीजों के बारे मे सोचना बड़ा अवशक है।

दूसरे विषय- मैं अपने भाई के बेटी के साथ इन्चान्टेड देखा। मुझे यह फिल्म बहुत पसंद आया। एक कारण था कि यह एक नई किसम की परी कथा है। और वह भी डिज्नी से। जिनको नहीं पता, डिज्नी एक कम्पनी है जिसने सारे मशहूर परी कथा को सेलुलोईद पर डाला है। तो डिज्नी से एक ऐसी फिल्म जिसमे राजकुमारी लड़के को बचाती है। जो सब को संभालती है। यह देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा। इससे तमाम लड़का लड़कियों को पता चलेगा कि लड़कियाँ भी लड़ सकती है। सिर्फ दिमाक से ही नहीं बल्की बल के साथ भी।
यह एक अपवाद नहीं है। थोडे साल पहले एक और ऐसे ही परी कथा बनी थी- प्रिंस एंड मी। उस मे राजकुमार थोडा दुर्बल था। वह अंग्रेज़ी और भाषाओं के जानकारी रखता था और लडकी चिकित्सक बनना चाहती थी। यह 'उल्टा' है।
इससे अच्छा असर पड़ता है- लोगों को पता चलता है कि लडकी सिर्फ एक नहीं अनेक काम कर पाती हैं। काश आज के बोलीवुड मे भी कोइ ऐसी फिल्म कामियाब हो पाती--जब मैं यह फिल्म देखने गयी एक चोटी सिनेमा मे बहुत बड़ी क्यू थी। पहली शोविंग मे जा ही नहीं पाए। और मेरी बाबू को यह फिल्म अच्छी भी लगी। दो तीन मोड़ पर उसने मेरा हाथ जोर से पकडा हुआ था और वह बादमे बोली- कितनी अच्छी फिल्म थी! उसको नारीवाद के बारे मे कम पता है तो जब मैंने बड़ी ख़ुशी से कहा- "वह कितनी प्रगतिशील फिल्म है" उसने बोला क्यों?
जब मे किसी और से वाद-विवाद कर रही थी इस के ऊपर वह बोलली "आई डोंट गेट इट" मैंने उसके प्यार से कहा "कुछ नहीं, बेटा"
लेकिन उसके मन मे यह कहानी का अच्छा असर होगा। एक बार मेरी एक अध्यापिका ने बोला-लोग पूछते हैं कि बच्चे तो गीता का समकार्थ नहीं समझते तो क्यों उन्हें श्लोक सिखाएं? मेरा जवाब है कि अभी वह अर्थ नहीं समझते लेकिन श्लोक तो मन मे बसते है। और बडे होकर वह अर्थ समझ जाएँगे और श्लोक को जानकार उनको आसानी होगी" वैसे ही यह कहानियाँ हैं। यह हमे याद रहते हैं और बडे होकर जब हम निर्णय ले रहे होते हैं हमे कहानियाँ याद आतें है। चाहे वह दादी के बताए हुए कहानी यह गाए हुए लोरी हों यह परी कथा। तो, जैसे आप मेरे से सुनते सुनते थक गए हो, इस लिए यह सोचना कि फिल्मों और कहानियों मे क्या पेश किया जा रहा है यह अहम है।
एक और बात- यह समाज के बदलाव का एक संकेत है क्योंकि डिज्नी एक ऐसी कम्पनी है जो यह ध्यान मे रख कर चलती है। पहले जब अमरीकी मे रेसिस्म दिखा सकते थे तब उन्होने एक रेसिस्ट फिल्म बनाई थी। लेकिन अब उन्होने एलान किया है कि वह एक ऐसी परी कथा बनाएंगे जिसमे अलाप-संख्यक लोग कुमार और कुमारी का रुप धारण करेंगे।

Wednesday, November 21, 2007

कल मैं अपने बुआ के यहाँ आई हुई हूँ। मैंने सोचा कि थान्क्स्गीविंग के मौक़े पर मैंने सोचा कि मैं कृतज्ञता के बारे मे बात करूं। कभी कभी हम ज़्यादा उलाहना देतें हैं यह शिक़ायत करतें हैं। लेकिन मैं बड़ी भाग्यशाली हूँ । मेरे पास एक अच्छा परिवार h

Sunday, November 18, 2007

शूताऊt अट लोखंडवाला

कल का थकान और आज अच्छी तरा से काम हुआ! बहुत अछा लगा। आज मैंने शूटाउट ऐट लोखंडवाला
देखा का एक क्लिप देखा। वह अंत का क्लिप था और उसमे पूछा गया कि आप क्या चाहते हैं? बाहर ए.टी.एस हो यह मोब। इस का जवाब देना मुश्किल है। इस फिल्म मे बहुत कोशिश कि गयी के दोनो तरफ के लोगों का जो तर्क था, जीवन था, वह दिखाया जाए।
मोब के लड़कों के भी परिवार वालों, उनके भी दुःख को दिखाया और पोलिस वालों के कुर्बानियां। और अंत मे बताते हैं कि ए.टी.एस ने क्या कर दिखाया और उसके बंद करे जाने के बाद ही मुम्बई बम ब्लास्ट हुए। कारणकार्य-सम्बन्ध लगाना मुस्खिल है-ए.टी.एस। रोक पाती यह नहीं? लेकिन यह सब फिजूल की बातें हैं। सच बात है कि किसी कारन भारतीय सरकार ने इसे रोक दिया था। क्यों? यह वो ही जाने।
लेकिन जब मैंने फिल्म पहली बार जब मैंने फिल्म देखी तो मेरे अंदर बहुत घबराहट उमड़ी थी। ऐसे सरकारी फैसले से मुझे हमेशा डर लगा है क्योंकि मुझे लगता है के ऐसे शक्ति का इस्थिमाल ज़्यादातर गलत ही होता है। लेकिन फिर उन लोगों का क्या जो मारे जाते। जो तड़प तड़प के जीते। इस सवाल का मेरे पास जवाब नहीं। आप लोग ही मुझे बताएं।

Saturday, November 17, 2007

मेरी थकान

कई बार ऐसे क्यों होता है कि हमारा जी पढाई मे बिल्कुल नही लगता? ऐसे क्यों होता है। मुझे यह बहुत कम होता है लेकिन पिछले हफ्ते से मेरा मन बिल्कुल पढाई मे नही लग रहा। यह करने के लिए भी मैंने बैंड इट लाइक बेखम लगाया हुआ है और हर दो सेकंड मे कुछ और करने लग जाती हूँ। मुझे ३९१ के लिए प्रोब्लेम्ज़ करने चाहिए। लेकिन मैं ब्लोग लिख रहीं हूँ और बेंड इट को सुन रहीं हूँ। और अभी मुझे नींद आ जाएगी। देख लेना। आज भी कम काम होगा।
और कल मुझे एक जगह जाना ही जान है। लेकिन वह २ घंटे के लिए। लेकिन तैयार होने मे भी एक घंटा लग जाएगा। यही है मेरी दुविधा। देखा अब से ही मुझे जम्हाई आ रही हैं। इस हालत मे मैं ३९१ के लिए काम कैसे करूंगी? करना ही पडेगा। क्योंकि अगर यह प्रोब्लेम्ज़ नहीं कर पाए तो मुझे सोमवार को मदद लेने जाना चाहिए। क्योंकि फिर परीक्षा के मार्क्स देने वालें है वह तो फिर बहुत लोग उसके बारे मे उनसे बात करने जाएँगे तो फिर उनके पास हमसे बात करने के लिए कम वक्त होगा।

Friday, November 16, 2007

पहले: मिशिगन डेली मे मेरी तस्वीर थी। मेरा चहरा नही दिख रहा था लेकीन मेरी जाकट और पैंट दिख रही थी- मैं जीना-६ राल्ली मे शामिल थी। आप मुझे हर वक्त ज़्यादातर डाईयाग पर पा सकते हैं।

आज के मौसम मे बहुत लोगों दूसरे पर ध्यान दे रहे हैं। यह गलत है। हमे अपने पर और अपने कार्यों के बारे मे सोचना चाहिए। आप ने उस औरत से ठीक से बात कि। आपने उसे बुरी नज़रों सो क्यों देखा? ऐसे चीजों पर विचार करना उचित है।
आज फिरसे सुनने मे आया था कि आल शार्पटन ने राज्धाने मे राली लगाई कि सरकार और क्यों नहीं कर रहीं है लोगो को बचाने के लिए। लेकिन ऐसे नेताओं पूरे देश के बारे मे क्यों नहीं सोचते? कल दबाते मे किसी ने सही पूछा रेशल प्रोफयालिंग क्यों नहीं रोकते। जब आतंकवादी हमले हुए ही थे मेरे पापा और बहुत से लोगों ने कहा था कि हमे रेशल प्रोफयालिंग के साथ थोडी देर जीना होगा क्योंकि समझ सकते हैं कि क्यों। लेकिन अब बहुत ज़्यादा ही वक्त हो गया है। रेशल प्रोफयालिंग से कुछ नहीं होता। बहुत कम लोगों को सिर्फ रेशल प्रोफय्लिंग से पकडा जा सकता है। हाँ, अगर रेशल प्रोफयालिंग को बहुत से चीजों मे से एक्स इस्थिमाल किया जाए वह ठीक है। फिर उसका इस्थिमाल ठीक है. उचित है।

Wednesday, November 14, 2007

हमरे अंदर खोट

"तीजा तेरा रंग था मे तो" - यह चक दे का एक लाइन मेरे दिल मे गढ़ कर गया। सच बात है कि हर देश मे अन्य देश भक्तों को देश से बाहर माना जाता है- उनका कसूर- गलत जाती मे जनम।
रंग दे बसन्ती मे दिखातें है कि आज़ादी के लिए जान नौचावर करने वाले अश्फक़ल्लाह खान को रामप्रसाद बिस्मिल, एक और आज़ादी का सिपाही ने कहा "तुम अफ्घनिस्तान चले जाऊं। वह लोग तुम्हारे अपने है"
"तुम्हारे अपने? क्या मैं तेरा अपना नहीं?"
दो आज़ादी के सिपाही मे भी यह अंतर आ गया था। देश मे बहुत लोगों मे भी यह फरक आ जाता है-- मैं भारातीय हूँ, मेरा रंग ज़्यादा काला है इस लिए मैं औत्सोर्सिंग से परसन होंगी। नहीं मैं जानती हूँ कि इससे अमरीका को कितना और कैसे नुकसान पहुंच रहा है। बराक ओबामा काला है और उसका मध्य नाम हुसेन है तो वह भी कैसे सचा देश भक्त हो सकता है। गलत।
लेकीन इस क बारे मे बात करना आसान है। हम क्या करेंगे? मैंने भी यह भूल किया है कि मैं किसी के रंग यह पोशाक के कारण समझती हूँ कि वह भी एक तारा सोचता होगा। तो सुझाव हम से शुरू होता है। और मैं जानती हूँ कि मैं इस मे अकेली नहीं हूँ।

Tuesday, November 13, 2007

फ़ाइनल class

बोल्लीवुद दुनिया का सबसा बड़ा फिल्म इन्ड्स्त्री है। और इसमे बहुत गुण हैं। लेकिन एक मेरी उससे बहुत बड़ी शिक़ायत हैं। वह महिलाओं को केसे पेश करने लगा है। १९९४ के बाद औरतों को वह बहुत असहाए और दुर्बल दिखाते है। आश्चर्य की बात तो यह हैं कि पहले ऐसा कम होता था। १९७०ज़् और १९८०ज़् के हिट फिल्मों मे बहुत औरतों मजबूत हैं और खुद फैसले लेती हैं। अल्प-संखयक लोगों, जैसे मुसलमानों को जिस तरा पेश किया गया है, उसमे मुझे ज्यादा फरक नज़र नहीं आया सिवाए कि अभ कई फिल्मों मे उनपे हुए ज़ुल्म का ज्यादा ज़िक्र होता है और वह ज्यादा फिल्मों मे उनका रोल है । बस एक भिनता है जो दोनो औरतों और मुसलमानों के चित्रण मे दिखता हैं। आज के कई निर्देशक सफल फिल्म बनाते हैं लोगों को सिखाने के लिए। इस पेपर मे मैं एक यह दो ऐसे फिल्मों का भी ज़िक्र करूंगी। लेकिन, ज़्यादातर फिल्म के विश्लेषण से दिखाउंगी कि आज के सिनेमा मे औरतों को दुर्बल दिखाते हैं और यह बुरा क्यों हैं।
१९९४ मे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे और हम आपके हैं कौन कि सफलता ने इन्ड्स्त्री का हुलिया ही बदल दिया था। दोनो फिल्म ने रेकॉर्ड्स तोड़ दिए थे। और उनकी खास बात? जहाँ और निर्देशकों खून-खराबा, कम कपडे और रंगीली फिल्म बना रहे थे यह दोनो फिल्म परिवार के साथ देखने योग्य थे और हैं। दिलवाले मे एक खून-खराबा का सीन भी है लेकीन छोटा है। और इस के इलावा दोनो फिल्मो का असर ख़ुशी, संस्कृति और संस्कारों पर है। फिल्म मे लड़कियाँ हमेशा पूरे कपड़े पहनती हैं। एक और भिन्ता। दोनो लड़कियाँ दुर्बल हैं। सिमरन पापा के आज्ञा के खिलाफ नहीं जाती। जब पापा घोषित करते हैं कि वह उनके साथ पंजाब जाकर कुलजीत से शादी करेगी, वह भाग के राज के पास नही जाती। बल्की सिर्फ रोती है। राज का इंतिज़ार करती है कि सिर्फ वह मुझे इस शादी से बचा सकता है। हम आपके हैं कौन मे निशा कुछ नही कहती जब उसको पता चलता है कि उसके माता-पिता ने समझा कि वह राजेश से शादी के लिए राजी हो गयी है। उसने नहीं कहा कि गलती से मैंने हाँ कह दी, मे प्रेम से प्यार करती हूँ। और पे और इस फिल्म मे जो औरत मन की बात बोलती है, वह है मामी और वह खलनायक के रुप मे आती है। पूजा बौजी एक और आदरणीय औरत हैं और वह अपना त्याग करतीं है। तो यह दोनो फिल्मों मे एक समानता है जिसने आगे जाने पर फिल्मो पर बहुत असर डाला था। और मेरा मानना है कि इस लिए १९९४ के पहले और बाद फिल्मो मे इतनी असामनता है
१९९४ के बाद सफल फिल्मो मे औरत दुर्बल हैं और मर्द का इनित्ज़ार करती है। कल हो ना हो मे नैना अपने जीवन को सुधार न सकी। अमन आया और उसने सब कुछ ठीक कर दिया। नैना, यह जेनी, नैना कि माँ, सहस क्यों का पर पाए? अमन ने क्या किया, हिमत करके दादी को जेनी का सच बताया। उसने दिमाक लगा कर व्योपार का कुछ उपाए सोचा। राजा हिन्दुस्तानी, जो १९९८ की हिट पिक्चर है, उसमे राजा बचा चुरा लेता है। करिश्मा क्या कर पाती हैं- कुछ नहीं, वह रोती है और उससे बिनती करती है और पापा कि सहित मांगती है। एक रिश्ते मे भी लड़कियाँ लड़कों का इंतिज़ार करती हैं भाई जब आता है फिर वह कुछ करती हैं। कभी ख़ुशी कभी घाम मे पूजा रोहन कि मदद करती है लेकिन, उसने जीजाजी के लिए रोहन को क्यों नहीं खोजा? जया बादमे पती को ठुकराती है लेकिन पहले वह जानती है कि बेटा अंजली से प्यार करता है पर वह नैना से सगाई के रस्मों को आगे बढ़ने देती है। यह सिर्फ मैं नहीं कह रही, रीडिफ़।कॉम ने कुछ दिन पहले लिखा था कि हीरोइन कितनी दुर्बल हो गईं हैं।
यह पहले नही होता था। अगर आप राम लखन देखेंगी तो इसमे कुछ और ही होता है। जहाँ जया पती के गलतीयों को चुप चाप सहन करती हैं गीता, डिम्पल, आगे बढ़ के कुछ करती है। हर फैसले मे मदद करती है। यहाँ तक की जब राम और लखन लड़ रहे होते है वही लड़ाई रोकती है। और उस कमरे मे मर्द भी थे। लेकिन गीता ने उनका इंतिज़ार नहीं किया। वह आगे बढ़ी। इस हे फिल्म मे माधुरी ने भी बाप के गलत फैसला का विरोध किया और "राम जी बड़ा दुःख दीना" गाने से अपने से निर्णय लिया और कुछ किया। कभी कभी मे भी नीतू सिंह ने अपने से निर्णे लिया और चल पड़ी माँ को ढूँढ ने। प्रेम रोग मे बड़ी माँ दो तीन बार मर्द के फैसले को ठुकरा गयी। तो औरतों को दुर्बल दिखाना नई बात है।पहले कभी कभी मर्दों को दुर्बल दिखाते थे। कभी कभी, यह फिल्म के बारे मे सोचना उचित है क्योंकि यश राज फिल्म्ज़ जिसने दिलवाले बनाया और आज कल बहुत सफल फिल्मों के पीछे है, इस ही ने कभी कभी बनाया। और इस फिल्म मे अमिताभ खलनायक है, वह अथीथ को नहीं छोड़ सकता और राखी छोड़ देती है और सफल बंटी हैं । और उसको, अमिताभ, को औरत की जारूरत होती है। चांदनी मे भी ऋषि कपूर को श्रीदेवी की मदद चाहिए। और जहाँ कल हो न हो मे नैना, दिलवाले मे सिमरन, रो कर कुछ नहीं करती, लम्हे मे विरेन रोता है gham करता है, लेकिन कुछ नहीं करता।
यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि फिल्म लोगों पर बहुत अससर करते हैं। एक वजह है भारत कि अनपढ़ कि संख्या ज़्यादा है। रामानंद सागर के रामायण मे अरुण गोविल ने रामचंद्र को पेश किया। उन्होने कहा कि इस के बाद कई लोग, खासकर गाव मे उनको सच मे भगवान मानने लगे। गोविल भगवान नहीं। लेकिन कई लोग जो ज्यादा जानते नहीं थे उनको फरक पता नहीं चला कि असली क्या है और नकली क्या । मैं यह कहानी इस लिए दोहरा रहीं हूँ ताके आप को पता चले कि फिल्मों का क्या असर होता हैं। इस असर के कारण ही यह प्रोजेक्ट का कुछ माईना है। और असार कि वजह से हम आर्ट फिल्म, जो लोग बनाते हैं लेकीन ज़्यादा कमाती नहीं है, के बारे मे नहीं बात कर रहें। उन फिल्मो मे बहुत ऐसी बातों पर विचार होता है लेकीन यह लोगों तक नहीं पौंच ती। इस लिए इन का असर कम होता है। हिन्दुस्तान मे बहुत लोग बोल्लीवुद, जो मेनस्ट्रीम सिनेमा है, वह देखते हैं।
प्रोजेक्ट मे दिखाया गया है कि निर्देशक को सोचना चाहिए कि वह क्या कह रहें हैं फिल्म मे। अभी हिन्दुस्तान मे बड़ी केस हुई थी, क्योंकि रेडिफ के मुताबिक धूम, यश राज की हिट फिल्म, के बाद चोरियाँ बड़ गयी और चोरों ने जॉन एब्राहम, जो फिल्म का एक हीरो है, उसके बालों कि नक़ल की। कई लोगों ने इस के लिए यश छोपड़ा को उत्तरदायी ठराया। उसने कहा कि मैंने सिर्फ फिल्म बनाई। इस तर्क मैं भी बुनियात है, लेकिन यह पूरा सफाई नहीं हो सकता। निर्देशक को सोचnaa चाहिए। और इस लिए मै समस्या बताने मे इतना वक्त बिता रहीं हूँ।
यह पेपर बताता नहीं है कि महिलाओं को बुरी तरा पेश क्यों किया जा रहा है। आश्चर्य कि बात तो यह है कि औरतों को दुर्बल, रोता हुआ', और मर्दों पर निर्भर १९९४ हे काड ही पेश किया जा रहा है। एक बदलाव का कारण है दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे और हम आपके हैं कौन। यह दोनो पिक्चरों ने रेकॉर्ड तोडके कमाया। तो शायद इसके बाद निर्देशकों ने सोचा कि darshakon यही चाहते है। लेकिन उनका भी कओई ज़िमिदारी है। उनके पता होना चाहिए कि auraton को ऐसे पेश करने से लोगों सोचने लगेंगे कि औरतों इसी के काबिल है। वह यह नहीं जान पाएँगे, कि जैसे अमर अख़बार एन्थोनी मे नीतू के बहुत रंग थे, वैसे बहुत औरतों के हैं। वह घर भी चला सकती हैं, काम भी कर सकती हैं और लड़ भी सकती हैं।

क्लास- २

अलप-संखयक लोगों को भी ठीक पेश किया जाता था। लेकिन एक चीज़ है- उन्हें कम दिखाया जाता था। यह ठीक है और बुरा भी। ठीक है क्योंकि इस का मतलब है बुरe रुप मे तो नहीं दिखा रहे। और बुरा क्योंकि वह भी हिंदुस्तान का हिससा हैं। अगर हम कह सकते हैं की इस के वजह है कि लोग धर्म के बारे मे सोचते ही नहीं थे इस लिए उन्हें दिखाया नहीं जाता। यह अच्छा है।लेकीन क्या यह सच है? इस वाद-विवाद मे मैं कुछ नहीं कह सकती। लेकिन जो बाकी हिंदुस्तान मे हो रहा था, धर्म के नाम पर खून-खराबा, बोलीवुड उससे बेखबर नही था, इस से लगता है कि कोई और ही कारण था। लेकिन जिन फिल्मो मे दिखाया है ठीक दिखाया है। अमर- अक्भar enthonee मे तीन बडे मज़हब, इसाई, मुसलमानों और हिन्दुओं को दिखाया था। तीनों अछे थे। और तीनो के धर्म को छुपाया नहीं गया। एन्थोनी ईसाई धर्म का चिह्न लगाता है। और एक गाना मे तीनों अपने धर्म का एलान करते हैं। मुझे यह अच्छा लगा।एक बात है जिससे लगता है कि अभी चीजे पूरी तरा बिगडी नहीं हुई। आज कल बहुत लोग कर्मण्यतावादी फिल्म बना रहें हैं जिसका मकसद है दिखाना कि क्या हिंदुस्तान मे बुराएया है जो सुलझाने चाहिए। और मे सिर्फ सफल निर्देशकों के फिल्मो के बारे मे बात करूंगी कारण बाद मे बताया जाएगा। राजकुमार संतोषी ने लज्जा बनाई। इस फिल्म मे साफ दिखातें हैं कि bhaarat मे औरतों पर क्या ज़ुल्म हो रहें हैं। चक दे मे दोनो, मुसलमानों पर क्या ज़ुल्म हो रहे हैं वह दिखाते हैं और महिलाओं के समस्याओं के बारे मे बात करती हैं।मिशन कश्मीर मे मुसलमानों पर क्या बीतती है इसके बारे मे बता ते हैं। असल मे मिशन कश्मीर मे बहुत बुरा हो सकता था। क्योंकि बहुत लोग सोचते हैं कि सब मुसलमान आतंकवादी हैं। लेकिन इस फिल्म मे साफ dikhaaten हैं कि इस्लाम आतंकवाद की इजाज़त नही देता। और एक सीन, जहाँ पर खान, संजय दत्त, और एक आईएस वाला बात कर रहे होते हैं, खान पर आरोप लगाया जाता है कि वह आतंकवादी है। और वह गुस्सा हो जाता है और कहता है कि यह इस देश की बद्किस्माती है कि बहुत सालों से गोली खाते aadmee पर आतंकवादी होने का इलजाम इस लिए गाया जा रहा है क्योंकि वह मुसलमानी हैं। तो यह बात अच्छी है। लेकिन ऐसी फिल्मों की पहुंच कम होती है। इस लिए दूसरे फिल्मो का सुधार आवश्यक हो जाताहैं।

क्लास

१९९४ के बाद सफल फिल्मो मे औरत दुर्बल हैं और मर्द का इनित्ज़ार करती है। कल हो ना हो मे नैना अपने जीवन को सुधार न सकी। अमन आया और उसने सब कुछ ठीक कर दिया। नैना, यह जेनी, नैना कि माँ, सहस क्यों का पर पाए? अमन ने क्या किया, हिमत करके दादी को जेनी का सच बताया। उसने दिमाक लगा कर व्योपार का कुछ उपाए सोचा। राजा हिन्दुस्तानी, जो १९९८ की हिट पिक्चर है, उसमे राजा बचा चुरा लेता है। करिश्मा क्या कर पाती हैं- कुछ नहीं, वह रोती है और उससे बिनती करती है और पापा कि सहित मांगती है। एक रिश्ते मे भी लड़कियाँ लड़कों का इंतिज़ार करती हैं भाई जब आता है फिर वह कुछ करती हैं। कभी ख़ुशी कभी घाम मे पूजा रोहन कि मदद करती है लेकिन, उसने जीजाजी के लिए रोहन को क्यों नहीं खोजा? जया बादमे पती को ठुकराती है लेकिन पहले वह जानती है कि बेटा अंजली से प्यार करता है पर वह नैना से सगाई के रस्मों को आगे बढ़ने देती है। यह सिर्फ मैं नहीं कह रही, रीडिफ़।कॉम ने कुछ दिन पहले लिखा था कि हीरोइन कितनी दुर्बल हो गईं हैं।
यह पहले नही होता था। अगर आप राम लखन देखेंगी तो इसमे कुछ और ही होता है। जहाँ जया पती के गलतीयों को चुप चाप सहन करती हैं गीता, डिम्पल, आगे बढ़ के कुछ करती है। हर फैसले मे मदद करती है। यहाँ तक की जब राम और लखन लड़ रहे होते है वही लड़ाई रोकती है। और उस कमरे मे मर्द भी थे। लेकिन गीता ने उनका इंतिज़ार नहीं किया। वह आगे बढ़ी। इस हे फिल्म मे माधुरी ने भी बाप के गलत फैसला का विरोध किया और "राम जी बड़ा दुःख दीना" गाने से अपने से निर्णय लिया और कुछ किया। कभी कभी मे भी नीतू सिंह ने अपने से निर्णे लिया और चल पड़ी माँ को ढूँढ ने। प्रेम रोग मे बड़ी माँ दो तीन बार मर्द के फैसले को ठुकरा गयी। तो औरतों को दुर्बल दिखाना नई बात है।पहले कभी कभी मर्दों को दुर्बल दिखाते थे। कभी कभी, यह फिल्म के बारे मे सोचना उचित है क्योंकि यश राज फिल्म्ज़ जिसने दिलवाले बनाया और आज कल बहुत सफल फिल्मों के पीछे है, इस ही ने कभी कभी बनाया। और इस फिल्म मे अमिताभ खलनायक है, वह अथीथ को नहीं छोड़ सकता और राखी छोड़ देती है और सफल बंटी हैं । और उसको, अमिताभ, को औरत की जारूरत होती है। चांदनी मे भी ऋषि कपूर को श्रीदेवी की मदद चाहिए। और जहाँ कल हो न हो मे नैना, दिलवाले मे सिमरन, रो कर कुछ नहीं करती, लम्हे मे विरेन रोता है gham करता है, लेकिन कुछ नहीं करता।

Sunday, November 11, 2007

खोसला का घोसला

इस फिल्म मे दिल्ली के आधुनिक रुप के बारे मे बहुत ज़िक्र हुआ। दिखाते हैं कि यहाँ खयाल कितने बदले हैं। पहले हिंदुस्तान मे रिश्तों के बुनियात और विश्वास पर चीज़ें चलती थी। लेकिन अभ खोसला का अंध विश्वास उसको फसाता है और सिर्फ बुधू बना कर वह काम चला सका। दिखातें हैं कि मुल्ताए-नाशानल कम्पनी मे काम करना कितनी बड़ी बात है। खोसला गर्व से कहता है कि उसका बेटा वहाँ काम करता हैं। पहनाव मे भी बहुत बदलाव आया है-- बेटी ने बाल छोटे कर रखें हैं और सलवार छोडो, जीन पहनकर घूमती है। मेघना दिल्ली मे अकेली रहती है। यह भी पहले नहीं होता था कि लड़की अकेली रहती हो। बड़ा शहर है मेरी चचेरी बहन नेहा ने बताया कि छोटे शहरों मे अगर कोई बच्चा घर से निकलता भी है तो तीन लोग माँ यह बाप को बता देंगे। दिल्ली मे मेघना अकेली रहती है और चेरी के साथ घूमती है और खोसला परिवार को पता ही नाहीं चलता। शुरुवात मे जो दिखाते हैं- जहाँ बीवी के इलावा उसके मरने पर कोई न रोता उसका भी यही मतलब है कि इतना अव्यक्तिpan फेल गया है।
मुझे लगता है कि यह फिल्म असल मे आधुनिक जीवन के अकेलेपन के बारे मे और उसको जीतने के बारे मे है। इस फिल्म मे आप देखेंगे कि हर मोड़ पर खोसला, पुराने खायालत का आदमी, जो अभ भी रिश्तों को भगवान् मानता है अपने बेटे से लड़ता है और नए खयालात से लड़ता है। पहले, हिन्दू धर्म के अनुसार, अछे लोग सत्यवादी होते थे। कभी झूट न बोलते। और इस फिल्म मे ब्रोकर लोग और सब खोसला को इतना बड़ा धोका देते हैं। इस फिल्म मे हर व्यक्ती अपने बारे मे सोचता है। चेरी बुरा आदमी नहीं है लेकिन वह अपने बारे मे सोचता रहा। उसने मेघना के जस्बातों के बारे मे नहीं सोचा जब उसने बाहर जाने का फैसला लिया । और खोसला के दोस्त ने क्या सलाह दी उसको? -- जितनी दोस्ती बना सको बेटे के साथ बनाओ। चाहे इसके लिए पुराने रस्मों को भी तोड़ना पड़े। यह नई बात है। बाप बेटे के लिए घर बना रहा है और बेटे घर छोड़ने कि सोच रहा था। यह आधुनिक जीवन कि कड़ी सचाई है और मैं भी इस मे शामिल हूँ-- सब आन्टीयां दर्तीं हैं की अकेली घर मे क्या करेगी और मुझे थोडे अकेलेपन से आनंद मिलता है । हम को अपने से और दूसरो से लड़ना पड़ता है। अपने बचाव के लिए और ताकी हम अपने को देख सकें कि हम यह गलती नहीं कर रहे।

Saturday, November 10, 2007

बोल्लीवुद और अलप-संखयक लोगों

बोल्लीवुद दुनिया का सबसा बड़ा फिल्म इन्ड्स्त्री है। और इसमे बहुत गुण हैं। लेकिन एक मेरी उससे बहुत बड़ी शिक़ायत हैं। वह महिलाओं को केसे पेश करने लगा है। १९९४ के बाद औरतों को वह बहुत असहाए और दुर्बल दिखाते है। आश्चर्य की बात तो यह हैं कि पहले ऐसा कम होता था। १९७०ज़् और १९८०ज़् के हिट फिल्मों मे बहुत औरतों मजबूत हैं और खुद के फैसले लेती हैं। अल्प-संखयक लोगों, जैसे मुसलमानों के पेश मे मुझे ज्यादा फरक नज़र नहीं आया। बस एक भिनता है जो दोनो औरतों और मुसलमानों के चित्रण मे दिखता हैं। आज के कई निर्देशक सफल फिल्म बनाते हैं लोगों को सिखाने के लिए। इस पेपर मे मैं एक यह दो ऐसे फिल्मों का भी ज़िक्र करूंगी। लेकिन, ज़्यादातर फिल्म के विश्लेषण से दिखौंगी कि आज के सिनेमा मे औरतों को दुर्बल दिकाते हैं और यह बुरा क्यों हैं।
१९९४ मे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे और हम आपके हैं कौन कि सफलता ने इन्ड्स्त्री का हुलिया ही बदल दिया था। दोनो फिल्म ने रेकॉर्ड्स तोड़ दिए थी। और उनकी खास बात? जहाँ और निर्देशकों खून-खराबा, कम कपडे और रंगीली फिल्म बना रहे थी यह दोनो फिल्म परिवार के साथ देखने योग्य थे। दिलवाले मे एक खून-खराबा का सीन है। इस के इलावा दोनो फिल्मो का असर ख़ुशी, संस्कृति और संस्कारों पर है। फिल्म मे लड़कीय हमेशा पूरे कपडे पहनती हैं। एक और भिन्ता। दोनो लड़कियाँ दुर्बल हैं। सिमरन पापा के आज्ञा के खिलाफ नहीं जाएंगी। जब पापा घोषित करते हैं कि वह उनके साथ पंजाब जाकर कुलजीत से शादी करेगी, वह भाग के राज पे पास नही जाते। बल्की सिर्फ रोती है। राज का इंतिज़ार करना परता है। हम आपके हैं कौन मे निशा कुछ नही कहती जब गलती से मैंने हाँ कह दी, मे प्रेम से प्यार करती हूँ। और पे और इस फिल्म मे जो औरत मन की बात बोलती है, वह है मामी और वह खलनायक के रुप मे आती है। पूजा बौजी एक और आदरणीय औरत हैं और वह अपना त्याग करतीं है। तो यह दोनो फिल्मों मे एक समानता है जो इनके बाद फिल्मो पे बहुत असर डालती हैं। और मेरा मानना है कि इस लिए १९९४ के पहले और बाद फिल्मो मे इतनी असामनता है।
१९९४ के बाद सफल फिल्मो मे औरत
दुर्बल हैं और मर्द का इनित्ज़ार करती हैं। कल हो ना हो मे नैना अपने जीवन को सुधार न सकी। अमन आया और उसने सब कुछ ठीक कर दिया। नैना, यह जेनी, नैना कि माँ, सहस क्यों का पर पाए? अमन ने क्या किया, हिमत करके दादी को जेनी का सच बताया। उसने दिमाक लगा कर व्योपार का कुछ उपाए सोचा। रजा हिन्दुस्तानी, जो १९९८ की हिट पिचर है, उसमे राजा बचा चुरा लेता है। करिश्मा क्या कर पाती हैं। एक रिश्ते मे भी लड़कियाँ लड़कों का इंतिज़ार करती हैं। कभी ख़ुशी कभी घाम मे पूजा रोहन कि सहैता करती है लेकिन, उसने जीजाजी के लिए रोहन को क्यों नहीं खोजा? जाया बादमे पाती को ठुकराती है लेकिन पहले वह जानती है कि बेटा अंजली से प्यार करता है पर वह सगाई के रस्मों को आगे बढ़ने देती है। यह सिर्फ मैं नहीं कह रही, रीडिफ़.कॉम ने कुछ दिन पहले लिखा था कि हीरोइन कितनी दुर्बल हो गईं हैं।
यह पहले नही होता था। अगर आप राम लखन देखेंगी तो इसमे कुछ और ही होता है। जहाँ जाया पती के गलतीयों को चुप चाप सहन करती हैं गीता, डिम्पल, आगे बढ़ के कुछ करती है। हर फैसले मे मदद करती है। यहाँ तक की जब राम और लखन लड़ते होते है वही लड़ाई रोकती है। और उस कमरे मे मर्द भी थे। लेकिन गीता ने उनका इंतिज़ार नहीं किया। वह आगे बढ़ी। इस हे फिल्म मे माधुरी ने भी अपे बाप के गलत फैसला का विरोध किया और "राम जी बड़ा दुःख दीना" गाने से अपने से निर्णे लिया और कुछ किया। कभी कभी मे भी नीतू सिंह ने अपने से निर्णे लिया और चल पडी माँ को ढूँढ ने। प्रेम रोग मे बड़ी माँ दो तीन बार मर्द के फैसले को ठुकरा गयी। तो औरतों को दुर्बल दिखाना नई बात है।
पहले कभी कभी मर्दों को दुर्बल दिखाते थे। कभी कभी, यह फिल्म सोचने योग्य है क्योंकि यश राज फिल्म्ज़ जिसने दिलवाले बनाया और आज कल बहुत सफल फिल्मों के पीछे है, इस मे अमिताभ खलनायक है। वह बीता हुए कल को नही छोड़ पाटा और उसको औरत की जारूरत होती है। चांदनी मे भी ऋषि कपूर को श्रीदेवी की मदद चाहिए। और जहाँ कल हो न हो मे नैना, दिलवाले मे सिमरन, रो कर कुछ नहीं करती, लम्हे मे विरेन रोता है घाम करता है, लेकिन कुछ नहीं करता।
अलप-संखयक लोगों को भी ठीक पेश किया जाता था। लेकिन एक चीज़ है- उन्हें कम दिखाया जाता था। यह ठीक है और बुरा भी। ठीक है क्योंकि इस का मतलब है बुरा तो नहीं दिखा रहे। और बुरा क्योंकि वह भी हिंदुस्तान का हिससा हैं। अगर हम कह सकते की इस के वजह है कि लोग धर्म के बारे मे सोचते ही नहीं थे इस लिए उन्हें दिखाया नहीं जाता। इस वाद-विवाद मे मैं कुछ नहीं कह सकती। लेकिन जो बाकी हिंदुस्तान मे हो रहा था, धर्म के नाम पर खून-खराबा हो रहा था, बोलीवुड उससे बेखबर नही था, इस से लगता है कि कोइ और ही कारन था। लेकिन जिन फिल्मो मे दिखाया है ठीक दिखाया है। अमर- अक्भर अन्थोनी मे तीन बडे मज़हब, इसाई, मुसलमानों और हिन्दुओं को दिखाया था। तीनों अछे थे। और तीनो के धर्म को छुपाया नहीं गया। एन्थोनी ईसाई धर्म का चिह्न लगाता है। और एक गाना मे तीनों अपने धर्म का एलान करते हैं। मुझे यह अच्छा लगा।
एक बात है जिससे लगता है कि अभी चीजे पूरी तरा बिगडी नहीं हुई। आज कल बहुत लोग कर्मण्यतावादी फिल्म बना रहें हैं जिसका मकसद है दिखाना कि क्या हिंदुस्तान मे बुराएया है जो सुलझाने चाहिए। और मे सिर्फ सफल निर्देशकों के फिल्मो के बारे मे बात करूंगी कारण बाद मे बताया जाएगा। राजकुमार संतोषी ने लज्जा बनाई। इस फिल्म मे साफ दिखातें हैं कि bhaarat मे औरतों पर क्या ज़ुल्म हो रहें हैं। चक दे मे दोनो, मुसलमानों पर क्या ज़ुल्म हो रहे हैं वह दिखाते हैं और महिलाओं के समस्याओं के बारे मे बात करती हैं।मिशन कश्मीर मे मुसलमानों पर क्या बीतती है इसके बारे मे बता ते हैं। असल मे मिशन कश्मीर मे बहुत बुरा हो सकता था। क्योंकि बहुत लोग सोचते हैं कि सब मुसलमान आतंकवादी हैं। लेकिन इस फिल्म मे साफ दिखाते हैं कि इस्लाम आतंकवाद की इजाज़त नही देता। और एक सीन, जहाँ पर खान, संजय दत्त, और एक आईएस वाला बात कर रहे होते हैं, खान पर आरोप लगाया जाता है कि वह आतंकवादी है। और वह गुस्सा हो जाता है और कहता है कि यह इस देश की बद्किस्माती है कि बहुत सालों से गोली खाते आदम पर आतंकवादी होने का इलजाम इस लिए गाया जा रहा है क्योंकि वह मुसलमानी हैं। तो यह बात अच्छी है। लेकिन ऐसी फिल्मों की पहुंच कम होती है। इस लिए दूसरे फिल्मो का सुधार आवश्यक हो जाता
हैं।
यह बहुत ज़रूरी क्योंकि फिल्म लोगों पर बहुत अससर करते हैं। एक वजह है भारत कि अनपढ़। रामानंद सागर के रामायण मे अरुण गोविल ने रामचंद्र को पेश किया। उन्होने कहा कि इस के बाद कई लोग, खासकर गाव मे उनको सच मे भगवान मानने लगे। गोविल भगवान नहीं। लेकिन कई लोग जो ज्यादा जानते नहीं थे उनको फरक पता नहीं चला। मैं यह कहानी इस लिए दोहरा रहीं हूँ ताके आप को पता चले कि फिल्मों का क्या असर होता हैं। इस असर के कारण ही यह प्रोजेक्ट का कुछ महत्त्व है। इस प्रोजेक्ट मे दिखाया गया है कि निर्देशक को सोचना चाहिए कि वह क्या कह रहें हैं फिल्म मे। अभी हिन्दुस्तान मे बड़ी केस हुई थी, क्योंकि रेडिफ के मुताबिक धूम, यश राज की हित फिल्म, के बाद चोरियाँ बड़ गयी और चोरों ने जॉन एब्राहम, जो फिल्म का एक हीरो है, उसके बालों कि नक़ल की। कई लोगों ने इस के लिए यश चोपडा को उत्तरदायी ठराया। उसने कहा कि मैंने सिर्फ फिल्म बनाई। इस तर्क कि सीमा है, लेकिन यह पूरा सफाई नहीं हो सकता। निर्देशक को सोचा चाहिए। और इस लिए मई समस्या बताने मे इतना वक्त बिता रहीं हूँ।
यह पेपर बताता नहीं है कि महिलाओं को बुरी
तरा पेश क्यों किया जा रहा है। आश्चर्य कि बात तो यह है कि औरतों को दुर्बल, रोता हुआ, और मर्दों पर निर्भर १९९४ हे काड ही पेश किया जा रहा है। एक बदलाव का कारण है दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे और हम आपके हैं कौन। यह दोनो पिक्चरों ने रेकॉर्ड तोडके कमाया। तो शायद इसके बाद निर्देशकों ने सोचा कि यही दर्शादोक चाहते है। लेकिन उनका भी कओई ज़िमिदारी है। उनके पता होना चाहिए कि औअर्तों को ऐसे पेश करने से लोगों सोचने लगेंगे कि औरतों इसी के काबिल है। वह यह नहीं जान पाएँगे, कि जैसे अमर अख़बार एन्थोनी मे नीतू के बहुत रंग थे, वैसे बहुत औरतों के हैं। वह घर भी चला सकती हैं, काम भी कर सकती हैं और लड़ भी सकती हैं।

परिवार के प्रती धर्म

क्लास मे बुधवार को एक बात हुई थी जो अभी भी मेरे मन मे है। एक लड़का बता रहा था कि कैसे वह अपने बारे मे ज़्यादा सोचता है। उसका कहा भी ठीक था। उसने बोला कि ज़िंदगी के जिस मोड़ पर वह और हम हैं वह जिन्दागी बना ने का है। इस मे थोडा स्वार्थ आ ही जाता है। लेकिन मुझे लगता हैं कि यह गलत है। उसने ठीक कहा था कि वह उस के नज़ारिया से वह ठीक था। छूती उमर से ही वह बाहर पढाई के लिए भेजा गया था। मेरी पृष्टभूमि कुछ और है। मेरी पहली ज़िमिदारी हमेशा अपने परिवार के प्रती ही रहा है। आज भी मैं घर पर घर कि देख्बाल कर रहीं हूँ ताकी मेरे माता-पिता निश्चिंत अवकाश पर जा सकें। पौदों को पानी देना, दोस्तों जिनके इवेंट्स आ रहें हो उनके लिए तौफे लेना और जो भी पापा को यह घर को फोन करता हो उनसे बात करना मेरी ज़िमिदारी है।
यह करने से मुझे ख़ुशी मिलती है और मुझे लगता हैं कि मैं कर्तव्य का पालन कर रहीं हूँ। आख़िर बच्चे का भी तो कुछ कर्तव्य बंता है। हम छोटे हो यह बडे जितना कर सकते हैं उतना तो हमे करना ही चाहिए। मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नही हूँ कि हमे सिर्फ अप्ना कैरियर सुधारना चाहिए। यह हमारे अंदर गलत सिद्धांत डालता हैं। हमे सिखाता है कि काम के इलावा हमे कुछ नहीं करना हैं। नहीं। इंसानियत, बच्चे होने के कारण, बेटे/बेटियाँ के नज़रिये से, और बहन/भाई का भी कर्तव्य निभाना है।

Friday, November 9, 2007

ओबामा और देश प्रेम

मेरे क्लास वालों को जानकार शायद ख़ुशी होए गी, मुझे हँसी आई, कि जिस तस्वीर को मैंने क्लास मैं दिखाया था वह आज ओबामा के लिए भाडी विषय बन रहा हैं। आज उसके आदमियों ने कहा कि ओबामा बहुत गुस्सा है कि वह तस्वीर नेट पे इतनी फैल गया हैं। उसको लगता है कि गलत तरीके से पेश किया जा रहा हैं। लेकिन समाचार पत्रों का कहना है कि ज़्यादातर ठीक ढंग से पेश किया जा रहा हैं।
ओबामा का इतना उतावला होना इस बात को साबित करता हैं कि अमरीका मे देश प्रेम कि क्या एमियत हो गयी हैं कि ओबामा डर ने लगें हैं कि यह विषय उनको डुबो ले जब पहले से उनके चुनाव जीतने का सपना को पाना मुश्किल लग रहा था। अगर क्लिंटन ने, और वह कभी ऐसे गलती नहीं करेगी क्योंकि क्लिंटन ने यह पाठ जल्दी सीख लिया था कि कुछ चोत्ती बात यह तस्वीर आशाओं को डुबो सकती है, तो यह छोटी बात होती। लेकिन ओबामा का डरना अभी ठीक हैं।
इस माहौल मे किसी का कहना कि तुम देश प्रेमी नहीं हो, बहुत चिंता की बात हैं। लेकिन काश मेरे देश वासीयों इस देश प्रेम को कोइ अच्छा रुप दे सके और देश के मूल्यों कि रक्षा करें। वह नेताओं से कहते कि इस सीमा का आप उलंघन नहीं कर सकते। वह कहते कि आप इसको नहीं मार सकते क्योंकि यह भी हमारा है। आप इसको बेघर नही बना सकते, इस ने हमारे देश के लिए लड़ा है।

Wednesday, November 7, 2007

जैना- ६

आज आप सब मुझे डायाग पर पाएँगे। मैं आज जैना-६ विषय पर जानकारी बडाना चाहती हूँ। जैसे मैंने इस ब्लोग पर पहले लिखा हैं बहुत लोगों के गलात-फैमी है कि हम क्या चाहते हैं और किस विषय को बाहर लाना चाहते हैं। यह हैं कि अमरीका मैं अभी भी कितनी असमानताएँ हैं। अगर आप के पास पैसे हो, आप गोरे हो और आप कुछ गलत करते हैं आप को कम सज़ा मिलेगा। अगर आप अलाप-संख्यक हो, पैसा कम हो आप के पास, आप को कड़ी सज़ा मिलेगी। यह बिल्कुल गलत हैं। अमरीकी संविधान मे लिखा है कि सब को 'ड्यू प्रोसेस' और वकील का हक हैं। हम कहते हैं कि वकील अच्छा भी होना चाहिए। जिन वकीलों गरीबों का प्रतिनिधी बनते हैं कभी वह बहुत बुरे होते हैं। एक केस मे जब प्रतिवादी को मौत कि सज़ा सुना ने वाले थे, कुछ करने के बजाए उसका वकील अदालत मे ही सो गया। (इस के कारण अपील सफल हुआ) लेकिन यह कभी होना ही नही चाहिए।
यह जैना केस और इसके पीछे कर्वहात कि भूमिका है- यह असमानता।

Tuesday, November 6, 2007

आज मैं जब उठी मेरे अंदर बहुत कृतज्ञita भरी हुई थी। परसों डेलाईत सेविन्ग्ज़ के कारण मुझे कम, थोडे देर के लिए थकन का आभास हो रहा था। और मुझे लगा कि थोडे दोनो से मुझे बहुत थकान और जैसे बिल्कुल पढने का मन ही नहीं कर रहा। और मुझे कल थोडा सा वक्त खुद के कामों के लिए मिला। आज भी थोडा वक्त था लेकिन वह लेपटोप के सुधार मी निकल गया। बेस्ट बाई। मुझे फिरसे शुक्रवार को जाना पडेगा। लेकिन इस के बहाने दिवाले के लिए कुछ और खाना खरीदने का मौका मिलेगा क्योंकि एक दुकान बिल्कुल बेस्ट बाई के पास हैं।
लेकिन यह पोस्ट ख़ुशी और कृतज्ञता के बारे मी हैं। मुझे लगता हैं कि धन्यवाद करना बहुत ज़रूरी हैं। कई लोगों जो बहुत "हाई" करते हैं, उनके पास बहुत हैं। इन सब चीजों के लिए भगवान से आभार प्रकट करने का बजाए लोग शिक़ायत करते रहते हैं। घर मी दो गाड़ियाँ हैं लेकिन तीसरा नहीं हैं इस लिए शिक़ायत करेंगे। यह नहीं सोचेंगे कि बगल वाले के पास एक भी गाड़ी नहीं हैं और उसको पैदल जाना पड़ता हैं।
मैं भी यह भूल करती हूँ और शिक़ायत करूंगी - मैं तीन साल से हिंदुस्तान नहीं गयी लेकिन मेरे कई दोस्त दस साल से नहीं गए और माँ और पापा ने बोला हैं कि शायद इस साल यह अगले साल भेज पाएँगे।
मैं फिर से सोच ने लगी- कि शायद पुराने फिल्मो मे अल्प-संख्यक लोगों और औरतों को बहतर पेश किया गया हैं। मैं अमर-अख़बार-अन्थोनी के एक क्लिप देख रही थी। उस मे, तीनो धर्मों को एक जैसे दिखाया गया हैं - तीनो के लोग बच्चे को शरण देते हैं। तीनो अच्छे लोग हैं। और नीतू सिंह और परवीन बबी दीमकी, हसमुख, सुन्दर, और सुशील हैं। जहाँ कारन जोहर और राजश्री के लड़कियाँ नाज़ुक हैं नीतू और परवीन इस फिल्म मे कुछ करती हैं। दोनो मर्दों का इंतिज़ार नहीं करती। वाह। सिम्रान और नैना अच्छी लड़कियां हैं लेकीन नाज़ुक हैं - मर्दों का इंतिज़ार करती रहती हैं।कुछ करने के बजाए, वह रोती हैं।
राजश्री एक मुसलामानों को रखेंगे ही रखेंगे लेकीन ज्यादातर वह कुछ करेगा नहीं। अमर-अख़बार-अन्थोनी मे सब सम्मान हैं।

Monday, November 5, 2007

आताम्निर्भार्ता

आज मैं क्लास मे सुन रही थी जब एक सह्पाटी बता रहा था कि कईओं का औरतों को शिक्षा देने का इरादा गलत हैं। वह इस लिए कर रहे हैं ताके उस के अच्छे घर मे शादी हो जाए इस लिए नहीं कि औरत का मनोबल और अताम्निभार्ता बडे। स्वतंत्रता ज़रूरी हैं। मैं यहाँ पर बहुत से लोगों को देखती हूँ जिन्हें अपने से काम करना नहीं आता। यह बिलकुल गलत हैं। और इस की भूमिका काम्पुस से बहुत दूर शुरू होती हैं। घर पे। अगर घर आकर सब हमेशा एक साथ बेठे रहें, यह हमेशा कुछ न कुछ करना चाहते हैं तो उनको शांत रहना, उपने मे मस्त रहना यह नहीं आएगा। जैसे जब मैं घर पे थी, घर आकर माँ और बहन के साथ आधा एक घंटा बिताया फिर मैं ऊपर काम करने चली जाती थी। फिर शाम को थोडा और बैठी सब के साथ। फिर सप्ताहांत के मौक़े पर ज़्यादातर पूरा परिवार कुछ साथ मे करता था। लेकिन मुझे हमेशा अकेले और अपने मे मस्त रहना भी आता था।
तो यहाँ आकर भी मुझे अपना रास्ता ढूँढ ना आता हैं। कल मेरी लप्तोप टूट गया, मैं खुद दुकान पर गई। और हिन्दी प्रेजेंटेशन के लिए दूसरा खोजा। प्रेजेंटेशन के लिए भी मैंने किसी की सहिता नहीं मांगी। एक शब्द का हिन्दी शब्द माँ से पूछा। बस।
लेकिन जैसे मैंने कहा इस कि भी शिक्षा देनी पड़ती हैं। माँ कहती हैं कि जब वह बड़ी हो रही थी तो हमेशा कोई न कोई होता था और अकेलापन उनके लिए नई चीज़ थी। क्योंकि यहाँ पर पापा काम पर चले जाते। घर के बाहर शिक्षा पाने से यह भी आता हैं। क्योंकि, जैसे मैं अभ हॉस्टल मैं हूँ तो मेरी ज़िमेदारियां कम हैं। तो मैं थोडी देर के लिए सिर्फ यह सोच थी हूँ कि मुझे क्या करना हैं और करना चाहिए। इस से मुझे मालूम पड़ता हैं कि मुझे क्या अच्छा लगता हैं और यह कैसे कर सकती हूँ। जब मैं घर पर होती हूँ तो मैं पहले बेटी होती हूँ और उस नज़रिये सो सोच न पड़ता हैं। और बाहर रहने से अकेलेपन को कैसे झेलते हैं यह भी सीखने को मिलता हैं।

Sunday, November 4, 2007

डान राड्क्लिफ

मैंने आज उसका एक इण्टरव्यू सूना। मुझे बहुत अच्छा लगा, उसके आदमियों ने उसे अच्छी तरा तय्यर किया था। कई मशहूर लोग कहते हैं कि हाय हमने क्या खोया हैं। राड्क्लिफ ने ऐसे कुछ नहीं कहा। उसने सच बोला, मैं बता नहीं सकता कि मैंने कुछ खोया है यह नहीं, मैं तो इस के इलावा कुछ जान्ता ही नहीं। लेकीन मुझे बहुत मज़ा आया हैं। उस ने किसी की निंदा भी नही की। उस ने कहा कि वह बहुत अछे लोगों से मिला हैं और चाहता है कि उन्हें हमेशा जान्ता रहे। उस ने कहा हैं कि वार्नर बरोथर्स ने उस का हमेशा साथ दिया हैं। जिस काल मी मशहूर लोग हमेशा किसी न किसी के बारे मे बुरा बोल रहें हैं और कोइ बतामीज़ी कर रहीं हैं, राड्क्लिफ के बातों को सुनकर अछा लगा। जब वह अठारा साल का हुआ उस को अपने कमाए हुए पैसे मिले। उस मौक़े पे उसने कहा कि कई पत्रकारों चाहते हैं कि अब मैं कुछ बत्माज़ी करूं, यह मैं नहीं करूंगा।
अपने को वह अच्छे से संभालता हैं। वह ठीक से बात करता हैं। और यह इस सचाई के बाद- जिस से भी बात करो वह कहते हैं कि निजी ज़िंदगी मे राड्क्लिफ बहुत मजाकी हैं। एक सेट पर भी उसने थोडा बदमाशी किया था। लेकिन कभी हद से आगे नहीं गया। और मैं यह सब कहती हूँ और मैं उसकी "फंगिर्ल"= -अमारीकी भाषा मैं भी नहीं हूँ। लेकिन अगर और मशहूर लोग राड्क्लिफ जैसे वर्ताव करने लगे तो इस देश मे कितना और कैसे बदलाव आएगा। यह भारत मे भी सच हैं जहाँ पे सलमान खान जैसे स्तार्ज़ भी मौजूत हैं.

Saturday, November 3, 2007

मुशेरफ का भाषण

मैंने आज परवेज़ मुशर्रफ का भाषण सुना। और उससे साफ दिख रहा था कि वह सिर्फ पाकिस्तानियों से नहीं बलकी पूरी दुनिया से बात कर रहा था। भाषण के बीच मे वह अंग्रेज़ी मे बात करने लगा और इस समय वह सिर्फ अमरीकी लोगों और यूरोपीय लोगों से बात कर रहा था। उसने मशहूर अमरीकी राष्ट्रपति एब्रहाम लिंकन का कहा दोहराया। इससे वह यह साबित करना चाहते थे कि अमरीकी इतिहास मे भी राष्ट्रपति, और वह राष्ट्रपति जिस के इतिहास जय गाथा गाता हैं, उसको भी संविधान के कानून को तोड़ना पडा और "इमरजेंसी" का एलन करना पडा। उन्होने बार बार यह ज़िक्र किया कि अभी पाकिस्तान कि उमर कम है। हुक़ूमत-ए-पाकिस्तान अभी भी लोकतंत्र बनेगी। लेकिन अभी पाकिस्तान को वक्त चाहिए। यह कह कर अगर वह सफल होंगे, यह तो वक्त ही बता सकेगा। लेकिन उनका भविष्य बिल्कुल साफ नही हैं। उन्होने भाषण तो अच्छा नही लग रहा। एक तरफ हैं आतंकवादी, एक तरफ भुट्टो और शरीफ, और तीसरी तरफ है अमरीकी और यूरोपीय सरकारें। सारे सरकार ने कह दिया हैं कि वह मुशेरफ कि इस प्रदर्शन और कार्य का विरोध करते हैं।
लेकिन उनके विरोध से सच मे क्या होगा? अमरीका अभी पाकिस्तान को बहुत रुपये दे रहा हैं। और कम से कम यह रुपए मुशेरफ के साथी को खुश रख रहा है। यह बहुत ज़रूरी हैं क्योंकि अगर साथी नाराज़ हो गए तो मुशेरफ को जल्दी भाग न पड़ेगा
मुझे मुशेरफ के लिए कम चिंता हैं। मेरी चिंता तो उन आम आदमियों के लिए हैं जो लड़ाई के बीच मे फसें हैं. उनके लिए मैं प्रर्था कर रहीं हूँ. प्रभु उनकी रक्षा की जिए गा।

Friday, November 2, 2007

राष्ट्रवाद

आज मैं मिज्राणा नृत्य देखने गयी थी। वहाँ पे वह बता रहे थे कि भारत ने दुनिया को क्या सिखाया हैं और उसने दुनिया को अपने रंगों मे कैसे रंगा हैं। लेकिन उन्होने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि भारत ने दुनिया से क्या सीखा हैं। मैं जानती हूँ कि यह भारतिय-अमरीकी विद्यार्थीयों का कार्यक्रम था। लेकिन उनको एक tarfee कहानी नहीं पेश करना चाहिए था। अभी भी बहुत लोग कहते हैं कि भारत ज्यादा ही राष्ट्रवादी हैं। इससे यह साबित होता हैं और हमारे बच्चों, जिस मे मैं भी शामिल हूँ, उनको गलत शिक्षा मिलती हैं।
मेरा भारत महान कहने मे कुछ गलत नहीं हैं। भारत मे बहुत से गुणे हैं। एक हजार सालों मे भारत ने किसी भी देश पे आक्रमण नहीं किया हैं। भारत ने दुनिया को दशमलव दिया हैं। लेकिन यह बुरी बात होगी अगर हम मे से किसी ने कहा कि भारत महान हैं और दूसरे सब देशों खराब यह बुरे।
राष्ट्रवादी होना बुरी बात नहीं हैं। यह कभी कभी देश प्रेम का लक्षण होता हैं। लेकिन राष्ट्रवाद और देशप्रेम दोनो कि भी एक सीमा होती हैं जिसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए

Wednesday, October 31, 2007

पाकिस्तान मे हो रहे अस्थिरता

पहले मे सारे पाकिस्तानियों से कहना चाहती हूँ कि मैं उनसे हमदर्दी दिखाना चाहती हूँ। मैं जानती हूँ कि आप को अभी बहुत डर लग रहा होगा और आप को लग रहा होगा कि कल क्या होगा। एक जो ज्ञान कि दृष्टि से वाद-विवाद करते हैं, वह कभी भूल जाते हैं कि वह सिर्फ काल्पनिक बातें नहीं कर रहें। हमारे वाद- विवाद के पीछे असली लोग हैं जो भुगत रहें हैं।
तो मैं पहले लोगो को ध्यान मे लाती हूँ। लेकिन अब मे काम कि बात करती हूँ। पाकिस्तान मे परिस्थिती ठीक नही हैं। दंगा फसाद रोज़ की बात हो रही हैं। और मसले का कोई असली हल नहीं दिख रहा। असल मे बात और गंभीर होने जा रही हैं। आज न्यायालय ने बोला हैं कि सरकार को नवाज़ शरीफ को देश से निकालने का कोई हक नही था। पाकिस्तानी हुक़ूमत अभी परवेज़ मुशर्फ के हाथ मे है। और वह नही चाहता कि शरीफ वापस आए। और न्यायालय के निर्णय के बाद शरीफ ने बोला वह फिर से वापस आने का कोशिश करेगा। और और भी अस्थिरता आएगी जब शरीफ वापिस आएगा। और बम फूटेंगे, और पठाके फूटेंगे. और लोग मरेंगे। यह काफी हैं। लेकिन एक और चीज़ होए गी। जब यह सब होगा तो हिंदुस्तान के आक्रमण के सम्भावना बढ़ेगा। और पाकिस्तान ने कहा हैं कि अगर हिंदुस्तान आक्रमण करेगी और उनको लगेगा कि वह पाकिस्तान पे राज्य जमाने कि कोशिश करेंगे फिर वह नाभिकीय अस्त्र का प्रयोग करेंगे। और यह दुनिया के लिए और इंसानियत के लिए बहुत बुरा होगा।
हिंदुस्तान यह जानती हैं लेकिन, अगर रिफ्यूजी कि समस्या बढ़ी यह उनको लगा कि अस्थिरता के कारन हिन्दुस्तान पर सरकारी यह आतंकवादी हमले बढेंगे तो शायद हिन्दुस्तानी सरकार आक्रमण का आदेश देदे। फिर हम सब सिर्फ प्रार्थना कर पाएँगे। इस ब्लोग मे मेरे पास कोई हल नही हैं। लेकिन मे यह समस्या सब के सामने पेश करना चाहती थी।

Saturday, October 27, 2007

मैं अभी महाभारत सेरीयल देख रहीं हूँ और मुझे सुझा कि इस कहानी मे कितनी बातें हैं जो हमे बहुत सीखा सकती हैं। युधिष्टिर एक आदर्श परिवार-वाला हैं। वह रिश्ते हमेशा निभाता हैं। एक इसमे पाठ अच्छा हैं - "हमारा झगड़ा एक आपसी झगड़ा, एक घरेलु झगड़ा हैं, बाहर वाले इस का लाभ उठाएं, यह ठीक नहीं" (महाभारत भाग ९)। हम सब को इससे सीखना चाहिएघरेलू झगड़ा, जहाँ तक अत्याचार नहीं हो रहे, को घरेलू झगड़ा को ज्यादातर घरेलू ही रहना चाहिए
महाभारत मे दिखाते हैं कि जीवन मे कितना संघर्ष करना पड़ता हैं। पांडवों ने कुछ गलत नही किया लेकिन उनको कितना कितना भुगत न पड़ता हैं। और इस के बाद भी, युधिष्टिर नातों का आदर करते हैं। लाक्षाग्रह के बाद भी वह जेष्ट पिताश्री के आदेशों का पालन करते हैं। इसके बाद भी वह दुर्योधन को अपना भाई मानते हैं। और एक मैं हूँ, जो एक यह दो अपराधों के बाद कई लोगों से क्रोधित हो गयी हूँ।
अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, बरे भाई का आदर करते हैं, द्यूत्कीड़ा के बाद भी बडे भाई के आज्ञा का पालन करते गाए। वह पहचानता गए कि उनको कितना अच्छा भाई, कितना धार्मिक जेष्ट भ्रात्ता मिल। हां यह ठीक हैं कि धर्म राज से एक गलत हुई। लेकिन उन्होने इसके बाद भी उनका आदर किया। थोड़ा सा, अगले दिन उन्होने उनको टोका, लेकिन इस के बाद कभी नहीं। सौभाग्य से मिलता हैं युद्धिश्तिर जैसा भाई। अगर मैं उसके स्थान पे होती तो शायद मैं बहुत पहले हस्तीनापुर के आक्रमण करती। लेकिन यह तो गलत होता।
द्रौपदी मे भी एक दोष के अलावा कितने गुण थे! इतनी आदरणीय बहु, बेटी, पटने, बहन। लेकिन फिर भी उसका एक अपना स्वाभिमान था। वह जानती थी कि उसको स्वयम भी अपना ख़याल रखना होगा। वह हार वक्त पाण्डवों पर निर्भर नही हो सकती।

क्लास असैग्न्मंत

खोसला का घोसला आधुनिक काल के जीवन के बारे मी फिल्म हैं। एक फिल्म हैं कि पारिवारिक और कारोबारिक जीवन कैसे बदले हैं। पहले, बच्चे माँ और बाप का आदर करते थे, इस फिल्म मे बेटा, चेरी, चोरी चोरी- एक लड़की, मेघना से प्यार करता हैं और उसने अमरीका मे नौकरी के लिए अप्लिकेशन डाली। और जब नौकरी मिली, वह पापा को बता त हैं कि उसने नौकरी ली हैं, पूछ था नहीं। और पापा, के के खोसला, ने लॉट ख़रीदा ताकी परिवार एक साथ रह सके। वह सपने देखने लग गया और हार वक्त चाहता था कि परिवार मे सब सलाह दें और हिस्सा ले। लेकिन फिर चेरी उसको बताता हैं कि वह अमरीका जा रहा हैं। उसको एक और सदमा लगता हैं जब उसको पता चलता हैं कि ब्रोकर ने उसको लूटा हैं और नगर पाल गण भी लुट न चाहते हैं। उसके बाद वह आवेश मे आकर पहलवान से सहित मांगी। यह करने के बाद उसको पता लगता हैं कि पोलिस, ब्रोकर, और पार्टी मिले हुए हैं। वह नाराश जो जाता हैं, लेकिन इस मौक़े पे बरे बेटे, चेरी, को होश आता हैं। वह फिर पार्टी और ब्रोकर को लूटने का प्लान बनाया। यह करते करते वह कोशिश करता हैं कि पापा को मना ले। लेकिन पापा को बहुत घबराहट होती हैं। और वह अभी भी थोड़ा नाराज़ हुआ हैं। इस फिल्म मे दिखाते हैं कि नई भारत मे सब को अपने चीजों का बचाव करना पड़ता हैं। खोसला का सिर्फ एक दोष था- वह ज्यादा भरोसेमंद था। चेरी का दूसरा दोष था-- वह थोड़ा ज़्यादा अपने बारे मे सोचता था। दोनो का मिलाप होना पडा। खोसला को अपने आदर्श थोड़ा दबाना पडा और छल को अपने स्वीकृती देनी परा और चेरी को अमरीकी नौकरी। माँ को पत्नी के धर्म का थोड़ा उल्लंघन करना पडा।

अजीबो गरीब- वह एक अध्बुत किसम का आदमी हैं

अल्फाज़ -- गीत्काव्य मुझे अभी याद नहीं

हैरत से- यह तो बड़ी अस्चार्य की बात हैं!

करीब करीब - लग भाग तीन साल होगे भारत गए हुए।

कातिल - मैं खूनी नहीं हूँ।

जिस्म- उस का तन और शरीर पूरी तारा से ढाका नहीं हैं।

के मुताबिक - सह्पाटी के अनुसार हमे अभी निकलना ठीक हैं।

गुफ्तगू - उन से बातचीत शुरू हुई।

तकसीम करना- हमने लक्ष पालिया हैं।

तब्दीली- उसमे बदलाव आया हैं!

जाहिल - यह एक महामूर्ख हैं!

तमाम - साड़ी सृष्ठी खुश हुई hain।

दरियाफ्त- होने वाले बहु के परिवार के बारे मे हमने पूछताछ कर लिया।

बेशुमार - यह एक अनंत सागर हैं।

नतीजा - उस का परिणाम तो हार ही हो सकता हैं।

मुलाजिम - वह पाठशाला का अधिकारी हैं।

मुल्क- यह देश मुझे बहुत प्यारा हैं।

सरहर्द- सीमा पर फौज रक्षा के लिए खड़ी हैं।

हुकूमत -- मंत्रि-मण्डल इकात्रिक हो गया हैं।

महबूबा - यह मेरी प्रेमिका सोनी हैं।

Thursday, October 25, 2007

पहले, मैं उन लोगो को हमदर्दी प्रदान करूँ जो कैलीफोर्नीया के आग मे लोगों को खो गाए हैं यह जिन्होंने घर और संपती खोया हैं। जो लोग इस आग के कारण बेघर हो गाए हैं। मुझे बड़ा क्रोध आता हैं कि किसी ने जान्बूच के आग जलाई। आज एक समाचार पत्र मे अग्निशमक के नेता ने बोला कि सबसे क्रोध-दायक बात तो यह थी कि सब को पता था कि जब आग जलाया वह जल्दी फेलेगा। और सबसे हानीकारिक बात तो फेलाव ही हैं। तो इस आदमी का इरादा लोगों को मारना ही था। अगर उसका कुछ और इरादा था तो उसको मालूम होना चाहिए कि उसका यहीं अंजाम होगा। दस लाख लोग बेघर हो चुके हैं, एक काउंटी मे एक अरब का नुकसान हुआ हैं। यह कितनी बुरी बात हैं इससे भी साबित होता हैं--जब मुझे खबर मिल कि यह आग किसे ने जान बूच कर जलाया तो मैं बहुत थक हुई थी और समाचार अपने को जागे रखने के लिए देख रही थी। मुझे इतना क्रोध आया कि मैं उठ कर लोगों को बताने लगी।
और हाँ, अगर आपने न सुना हो, फॉक्स न्यूज़ ने अल काईदा को आग के लिए दोषी ठहराया। मैं बातें नहीं बना रही। सच कह रहीं हूँ।

Tuesday, October 23, 2007

थोडा विश्लेषण

मेरे पहले पोस्ट मे क्या दिखाया गया? दिखाया गया कि माँ यह नहीं समझती थी के सोन्या एक आज्ञाकारी बेटी थी। वह बात मान जाती। लेकिन उससे बात न करने का अंजाम बुरा था। अगर माँ अपने तर्क सोन्या को समझा देती, यह तो सोन्या ख़ुशी ख़ुशी शादी करती, यह शायद माँ के विचारों मे कुछ बदलाव आता। लेकिन सही विषय क्या था? दो देशों का अंतर। माँ डर रही थी कि अमरीकी संस्कृति सोन्या के संस्कार पे ग्रहण डाल रहा था। वह डरती थी कि आवेश मे आकर सोन्या बर्ट के साथ कुछ न कर बैठे । उसने सोचा कि मेरी माँ ने मेरी शादी बिन पूछे अपने पसंद के लड़के से कर दिया था, तो सोन्या के लिए भी यह ठीक होगा।
सोन्या: मैं खुद के फैसले करना जानती हूँ। मैं अच्छा फैसला करूंगी तो माँ और बाबूजी को क्या ऐतराज़ हो सकता हैं। बर्ट अच्छा लड़का हैं, वह ठीक कमाता हैं, मुझे अच्छे से रखेगा। तो समस्या क्या हैं? मैं यहाँ पे पली बड़ी हूँ, यहाँ के तोड़ तरीके समझती हूँ और बर्ट मुझे समझता हैं। वह जनता हैं की मैं एक पक्की हिन्दू हूँ। मुझे अपने बच्चे को भारत के रंगों के साथ बड़ा करना चाहती हूँ। और उसने वादा किया था कि वह मुझे करने देगा ।

सोन्या कि दुखित कहानी

यह भी एक कहानी के भाग हैं -- लेकिन यह हमारा पहले कहानी से जुडी हुई हैं।
सोन्या कमरे से बाहर आई। वह झुक के मुन्नी को चूमी। "दीदी को भूल मत जाना।" "आप हमेशा चोकोलेट लाना तो कैसे भूलूंगी।"
सोन्या रोते रोते हँसी। "चुटकी।"
सोन्या फिर अंदर गयी और फिर उसने चूडी पहने। वह माथे पे टीका सजा ने लगी। माँ अंदर आई "बेटी, दो घंटे मे मंदिर के लिए रवाना होना हैं। "
सोन्या ने सर हिलाया, माँ हो दिखने के लिए कि उसने उनकी बात सुनी। जबसे माँ ने सोन्या के शादी का एलन किया, सोन्या ने उनसे बात नहीं की। माँ को पता था कि सोन्या बर्ट से प्यार करती हैं। जब सोन्या ने माँ को बताया कि वह किससे प्यार करती हैं, उसके तीन बिन बाद माँ ने पापा से कहाँ कि वह सोन्या कि शादी अपने दोस्त के बेटे रोहन से करवा दे। सोन्या पापा की बात नहीं टाल सकती थी। माँ ने पापा को इतना उकसाया कि सोन्या को यह तो पापा को ना करना पड़ता।
सोन्या ने बर्ट को एक खत लिखा था। "तुम जानते हो कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ। लेकिन पापा की बात को नहीं टाल सकती। मेरे पीछे मत आना। तुझे हमेशा चाहूँगीसोन्या "ब्लू आएय्स"
माँ दो घंटे बाद सोन्या के पास आई। "तीन साल मे तू मेरा निर्णय समझे गी। "
"मुझसे बात करने के बजाय आप मेरे पीट के पीछे जा कर आपने शादी का निर्णय ले लिया। यह क्या इन्साफ़ हैं?"
"मैं तेरी माँ हूँ। तू मेरी बात कभी नहीं समझती।"
"आप ने बात करके देखा? अगर मे आज्ञाकारी बेटी न होती तो मैं भाग जाती। मैं पकना हूँ। मैं समझदार हूँ। अगर आप मुझे तर्क समझा सकते तो शायाद मैं राजी ही हो जाती। लेकिन, आप ने मुझे उस के लायक नहीं समझा।"
"हमारे यहाँ बच्चों को सिर्फ बताया जाता हैं। यह कौनसी जगह आ गयी जहाँ बेटी को लग त हैं कि उससे सलाह लेनी चाहिऐ थी शादी के लिए।" लेकिन माँ के आवाज़ मे पहली बार थोडा संकोच आया।
"गाडी आ गयी!" नीचे से आवाज़ आई।
सोन्या उठी और गाडी मे बैठ गयी। मुन्नी गो उसने गोद मे बिठाया।

Monday, October 22, 2007

कविता

सच मे, मुझे नहीं सूझ रहा कि मैं किस विषय पर लिखूं। तो मैंने सोचा कि मैं कुछ मनोरंजन-दायक लिखूं। क्या, मैंने सोचा एक प्रेम के बोली। "तेरे बिन जीने असंभव हैं!"
"तू न हो, तो मे मर जावन।"
"तेरा प्यार ही मुझे ज़िंदा रखता हैं।"
"आख़िर मैं तेरा और तू मेरा!"
यह लिखने का एक और मकसद भी है-- बतादुं कि एक चीज़ को दो दीं तरीकें से देख सकते हैं। यह तो इसे एक प्रेमिका और प्रेमी के बोल समझें, भक्त भगवन से, माँ-बेटी का प्यार (जैसे छोटे बच्चे से बोलते हैं, है तू इतनी मीठी हैं, माँ तुझसे कितना प्यार करती हैं)
यह जानना ज़रूरी हैं क्योंकि हम कभी कभी कानों के सुने पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हैं। स्नेह सुनती हैं की- स्नेह को मत बता ना, मैं चुपके से यहाँ से चली जाती हूँ। स्नेह को शक हो जाता हैं, जब स्नेह के दोस्त, रानी और गंगा सिर्फ उस के जनाम्दीन के लिए कुछ कर रहें हैं। स्नेह रूठ जाती हैं। इस बात को ले कर मैं पीड़नोन्मादी हो गयी हूँ। खासकर लड़कियाँ। मेरे दोस्त ने एक बार पूछा कि उसने क्या कहाँ, लेकिन मैंने बोला --बादमे! क्योंकि अगर वह अपना नाम सुनती तो शायद मुझ से रूठ जाती, कि तुम दुसरे से मेरी क्या बात कर रहे थे?

Sunday, October 21, 2007

थकान

कभी कभी, खासकर इन दिनों मैं सोचती हूँ कि थकान सिर्फ हमारे मन मे हैं? हम अपने को अभ्यास और नियम के साथ जीने से यह थकान दूर हो जायेगी। लकिन शायद कभी कभी यह हम मन को बहकाने के लिए कहते हैं। आज सुबह मुझे बहुत रोना आया और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं रो क्यों रहीं हूँ। फिर मेरे ध्यान मे आया कि मुझे नींद आ रही थी। मैं काम मे इतनी लग गयी थी कि क्या कहूँ। और जब बिस्तर मे सोने के लिए लेटी तो नींद आने मे वक्त लगा। इस का अंजाम क्या हुआ? तकरीबन तीन हफ्तों से मैं ठीक से सो नहीं रहीं हूँ। तो आज मैंने मम्मी और पापा से बोला कि आप दोनो बाहर चले जाएँ और मे घर पे पढूंगी तो आज रात को मैं सो पाऊं। मुझे थोडा खराब लगा क्योंकि माँ और बाप के साथ भी वक्त बिताना चाहिऐ लकिन अगर मैं थकी थकी उनके साथ समे बिताती तो ना मैं वाहान कि रहती न याहंकी। ऐसे कर के मैं कल को उनके साथ वक्त बिता सकूंगी।
क्या यह ठीक हैं? आप मुझे बताएं। अगली बार मुझे क्या करना चाहिऐ। अपनी तरफ से मैंने बहुत काम पहले कर के रखाथा लकिन दो दो हफ्ते माँ और पापा ने घर बुलाया हैं और घर के कामों मे उलझ गयी। और अगर मैं होस्टल मे रह रहीं हूँ तो थोडा वक्त बातों मे भी बिताना पड़ ता हैं।

दशेरे पर थोडे विचारों

दुशेरे के दिन मे हम सब के लिए एक संदेश हैं -- सत्यमेव जयते। लेकिन हम सब को सचाई के पक्ष मे हमेशा लड़ना चाहिऐ। आज मैं एक सम्मेलन पर गई थी जहाँ पर होलोकास्त से जो लोग बच्चे थे, उन्होने हम सब से बात किया। मुझे लगा कि यह दुशेरे मी मौक़े के लिए कितना उचित विषय हैं। होलोकास्त एक घोर पाप हैं। एक घोर अत्याचार। जिन्होंने मेरे से बात किया उन्होने मुझसे कहाँ मेरे कहानी से सीखो कि लोगों से प्यार से मिलना चाहिये और अत्याचार का विरोध करना हम सब का कर्तव्य है। उन्होने कहा कि जर्मन देश के निवासी अब कहते हैं कि उनको नहीं पता था कि हिट्लर क्या कर रहा था। वह बोली कि कैसे नहीं पता था! कुछ कर सकते थे! उसके, जिस औरत ने बोला, उसके पाती ने कहा, कि यह हार रात जर्मन फौज से स्वप्नों मे लड़ती हैं। उनसे [जान कि] बिनती करती हैं। इस और ऐसे अन्य परिस्थितियों मे हम को, जो अत्याचार होते देख रहें हैं, क्या उनको कुछ नहीं करना चाहिये।
इस से हमको सीखना चाहिये कि अन्याय का विरोध करो। आज भी बहुत जगह मे लड़ाई हो अही हैं। डारफुर मे जातिसंहार हो रहा हैं। इस मामले मे मैं थोडी सी बोलती ज्यादा और करती कम हूँ। मैंने अभी डारफुर मे हो रहे अत्याचारों के विरोध मे ज्यादा नहीं किया। मेरा करने के इरादा हैं। लेकिन मेरे साथ आप भी कुछ करने का वादा करें। दशेरका यह तो असली मतलब हैं। कुछ करिये। यह जानिए की सत्यमेव जयते। कि सत्य और न्याय हमेशा जीतेगी। लेकिन उसको हमेशा हमारे साहिता कि ज़रूरत हैं।

Tuesday, October 16, 2007

डेमोक्रेसी- भारतीय और अमरीकी

एक क्लास के लिए मैं भारत के प्रजातंत्र राज्य के बारे मे पढ़ रही थी और मुझे खयाल आया कि सच मुच कितनी गर्व की बात हैं की इतने सालों मैं हिंदुस्तान को कोई राज्यविप्लव ने नहीं तोड़ा। सब पाठ मे लिखा था की सिर्फ इंदिरा गांधी के अवधि मे प्रजातंत्र वादी स्टाईल पर आंच आयी। लेकिन इंदिरा गांधी को जिस तरा निकाला गया यह भी कुछ कहता हैं। एक पाठ मे भी लिखा था की सच मैं यह दीखता हैं कि अंत मे जो भी इंदिरा के गुनाह थे, और बहुत गुनाह थे, वह पूरी तरा बुरी नहीं थी। उस के अंदर अपने बाप के सिद्धान्त थे-- जवाहरलाल नेहरू को डेमोक्रसी से बहुत प्रेम था। उन्होने संविधान मे बहुत बदलाव लाना चाहा और उनको न्यायालय से शिकायत थी, लेकिन उसने हमेशा उस का आदर किया।
यहीं बात होनी चाहिए। अमरीका मे बहुत लोगों को २००० चुनाव पर लज्जा आई। हमने कहाँ, यह कैसे को सकता हैं की बुश राष्ट्रपति घोषित हो सकता हैं जब की ज़्यादा लोगों ने गोर के लिए वोटों डालें हैं। और पे और किसी को राष्ट्रपति बनने मे इतना वक्त लग रहा था। लेकिन, एक पोलिश प्रधान मंत्री ने कहाँ की बहुत देशों के मंत्रियों ने कहाँ था कि बल्कि यह बताता हैं की अमरीकी डमोक्रसी कितनी मज़बूत हैं की ६ हफ्ते के बाद दोनो पक्ष न्यायालय के फैसले का इंतज़ार कर रहे थे। उन्होने बोला, जो मंत्री बात कर रहा था, कि उनके देश मैं अगर इतने दिनों बाद किसी को पदवी नहीं मिलती तो कोई और अपने को बल के साथ नीयुप्त कर लेता।

Monday, October 15, 2007

त्यौहार मुबारक

थोड़े दिनों के लिए यहाँ कोई पोस्ट नहीं डाला। मैं अपने माता पिता के साथ अपने मामा, मामी, और उनको दोनो छोटे छोटे बच्चों से मिलने गई थी। उनसे मिल कर बहुत ख़ुशी हुई थी। मैं उनके बेटे से पहले बार मिल रहीं थी, क्योंकि वह अभी दो साल का हुआ हैं, और इतनी से मैं भारत नहीं गई हूँ। बेटी भी बहुत बड़ी हो रहीं हैं। अब ठीक से बातें भी करती हैं। हम सब कितने बड़े हो रहें हैं। मैं अभी बुआ हूँ! थोड़े ही दिनों मे, जब मेरे भाई का बड़ा बीटा के शादी होगी तो मैं... बोलूंगी भी नहीं।
मुझे नींद आ रही हैं। मैं नमसते कहना चाहती थी, लेकिन और मैं कल लिखूंगी। आशा हैं अगर आप मुसलमान हैं तो आपका ईद बहुत अच्छा रहा होगा। अगर आप यहूदी हैं तो आप को सुकोत मुबारक। अगर आप हिंदु हैं, तो नवरात्रि कि शुभकामनाएं। अगर मैं भूल गई तो मुझे याद करवाए की मैं विजय-दशमी/दशेरे पे धर्म के जीत के बड़े मे लिखूंगी। क्योंकि वह आज के समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं और फिर त्यौहार के लिए कुछ करूँगी भी। अगर कोई और धर्म का कोई त्यौहार हैं जो मैं भूल गई, मुझे बताएगा। मैं दशेरे के बारे मे लिखूंगी केवल इस लिए कि मुझे इस त्यौहार के बड़े मे पता हैं, और ईद के बड़े मे कम। और गलत चीजों के साथ मैं किसी को क्रोधित नहीं करना चाहता।

Saturday, October 13, 2007

प्रेम रोग

कल मैंने आर के फ़िल्म की बनाया हुआ प्रेम रोग देखा। उस मे बड़ी अच्छे तरीके से दिखाया हैं कि एक छोट्टी नादान बच्ची पे क्या गुज़र ता हैं जब वह विधवा बन जाती हैं। और पे और इस फिल्म मे दिखाते हैं की कई परिवारों मे स्त्री का कितना और कैसे दुर्व्यवहार होता हैं। तनुजा, मनोरमा--विधवा-- कि भाबी उन्के के बचाव की कोशिश करती हैं, लेकिन जब पाती ही विधवा का बलात्कार कर्ता हैं तो वह उसे माई के भेजने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। और पे और इस फिल्म मे यह भी दिखाते हैं कि बडे जमींदार और ऊंचे जात वाले कैसे फ़ायदा उठाते हैं। लेकिन यहीं इस फिल्म की बुराई हैं। इस फिल्म मे बार बार कहते हैं की बड़े ठाकुर अच्छे आदमी हैं। और वह भी देवधर का साथ देता हैं, लेकिन उस को क्या मिलता हैं? अंत मे कोई उस को बढावा देता है, की तुम्हारे पास इतनी ताक़त हैं और तुमने हमारा साथ दिया। कोइ सोचता हैं उसके बारे मे? कई समाज बदलने वाले चीजों मे यहीं दोष होता हैं। वह कुछ ज्यादा ही दोषी मानते हैं उन्हें जिसे समाज मे ताक़त मिलती हैं।
हमे याद रखना चाहिऐ की कई यह लोग भी अच्छे हैं और मदद करना चाहते हैं बस उनको पता नहीं कैसे। उनके गुणों के लिए सज़ा दो, उन गुणों के लिए नहीं जो उन्होने नहीं किया । उनको साथी और मित्र बना लो दुश्मन नहीं यह दिखा कर की वह क्या कर सकते हैं।

Thursday, October 11, 2007

जोधा-अख़बार

आज जोधा-अख़बार के बारे मे नया संदेश दर्ज हुआ हैं। मुझे बहुत ख़ुशी हुई हैं। आशुतोष गाव्रीकर इस फिल्म का निर्देशक हैं। आशुतोष ने बोला हुआ हैं कि वह एक गाँधी-भक्त हैं। इस लिए मेरी उम्मीद हैं की वह इस प्रेम-कथा कि असली माय्ना निकाल सके। दिखा सके की मुग़लों वह बुरे लोग नहीं थे जो हिंदु-स्वाधीनता का पक्षपातीyon कहते हैं। उनका मान ना हैं की मुग़लों ने हिंदु धर्म का सरवनाश करने की कोशिश की। लेकिन इस कहानी मे दिखाते हैं कि अख़बार ने तो एक हिंदु से प्यार किया। उस ने एक नया धर्म का निर्माण किया था जो ना तो हिंदु था ना इस्लाम। वह चाहता था कि सब शांतिपूर्वक उसके राज मे जीं सकें। और वह राजनीति और शक्ति के बारे मे सोच रहा था। वह इस्लाम यह धर्म के बारे मे नहीं सोच रहा था।
ऐसे ही एक फिल्म हैं - सेव थी लास्ट डांस। इस फिल्म मे एक अफ्रीकी-अमरीकी लड़का और अमरीकी लड़की एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं। और बहुत सी बाधाएं उनके रास्ते मे उठी। उनको सोचना पड़ा की वह कहाँ के होना चाहते हैं। लड़का के पुराने दोस्तों उसको अपराधों की ज़िंदगी मे धकेलने लगे। लकड़ी के पिता ने उसको एक नए जगह मे पालना चाहा। लेकिन फिर उन्होने सोचा की प्यार सब से अहम चीज़ हैं। लेकिन प्यार के साथ साथ वह दोनो अपने सपनों को पूरा करने लग गए।

Wednesday, October 10, 2007

देश-प्रेम

कल मुझे एक और बार अहसास हुआ की देश प्रेम का सच्चा मतलब क्या होता हैं। मैं काम्पुस पर खड़ी थी और पीछे झंडा लहराता हुआ दिखा। उस झंडे के पीछे काला आसमान था और इतना खूबसूरत लग रहा था झंडा। हम राष्ट्र गीत गा रहे थे, और मैं सोचने लगी, इस झंडे के लिए कितनों ने क्या क्या कुर्बानी दीं हैं, और दे रहें हैं। मैं इतनी आसानी से क्या क्या बक सकती हूँ, लेकिन सरहद पर, और अन्य जगाओं पर जवानों हमारा किया भुगत रहें हैं।
मैं उनको सलामी देती हूँ और कहती हूँ कि जब भे मैं कोइ विरोध प्रदर्शन के बारे मे सोचुन्गी भी तो आप लोगों के बारे मे भी सोचुन्गी। मे ध्यान मे रखूंगी की हमारा किया आप के लिए कितना हानीकारिक हो सकता हैं। अगर हम ने बहुत सोच समझ के चुनाव मे वोट नहीं डाला तो क्या क्या भुगतना पडेगा। अगर हमने अपने राश्त्रपतीयों और संसद के लोगो सो प्रशन नहीं करा तो आप का क्या होगा। आप जो हमारे लिए लड़ रहें हैं।
यह सब सोचते सोचते मुझे खयाल आता हैं कि शायद ड्राफ्ट होना ही चाहिऐ तो हम सब भुगतें क्योंकि अभी ज्यादातर गरीबों और उनके परीवार वालें भुगत रहें हे। जो लोग युद्ध का एलान करते हैं, उनके कम बच्चे लड़ रहें हैं। यह हमेशा नहीं होता था। संसदी केनेडी का बीटा, जो जाकर राष्ट्रपती बना वह दुसरा महायुद्ध मे लड़ा। और संसदी केनेडी युद्ध की नीती मे भाग ले रहा था। वाह। तो वह कुर्बानी सिर्फ दूसरो से नहीं मांग रहा था।

Sunday, October 7, 2007

जहाँ तक मैंने देखा हैं, वहाँ तक महिलाओं को ठीक प्रस्तुत किया हैं। कीं सीरियल, जैसे एलीयास, एक ए। बी। सी का सीरियल हैं। उस मे जो हीरोईन हैं, सिडनी, वह एक मोडेर्ण लड़की हैं। वह अपनेलीये सोचती हैं, कभी कभी गलत फैसला लेती हैं लेकिन देखना चहीये की निर्देशक ने उसके फैसले को कैसे दिखाया हैं। उसने सिडनी को इन्सान के रुप मे दिखाया हैं, वह कभी कभी गलत फैसले लेती हैं, लेकिन समझ सकते हो क्यूँ । यह इस लिए जान ना ज़रूरी हैं क्योंकि अगर वह कोई दूसरी तारा उस को पेश करते, तो देखना पड़ता कि क्या उससे इस लिए दिखा रहें क्योंकि वह महिला हैं। जैसे, सिडनी के पापा, जैक, हमेशा सिडनी के भलाई पर ध्यान रखते हैं, और उसके हित के लिए कदम उठाते हैं। लेकिन सिडनी अक्सर उन पे और उनके इरादों पे शक करती हैं। उस के पद मे रुकावट डालती हैं। यह आदरणीय भारतीय महिलएं कभी नहीं करती। जिस तारा हम अपने औरतों को दिखाते हैं, जिस पगड़ी पे हम उनको रखते हैं, वह सिडनी जैसे औरतों को वैश्यअ के रुप मे देखेंगे।

लेकीण, अमरीकी फ़िल्मों को अल्प-संखयक लोगो को कैसे दिखाते हैं, इस पे ध्यान रखना चाहिऐ। एक अफ्रीकी-अमरीकी एक्टर ने कहा, "मेरे रंग के कारण मुझे यह तो मारा-मारी के रोल मिलते हैं, यह वो लड़का जो समाज को छोर कर अपने को कुछ बनाता हैं।" हिंदुस्तानियों को ज्यादातर वह दिमाकी, यह आतंकवादी के रुप मे दिखाते हैं। वह यह ज़िक्र करते हैं कि एक दो अल्प-संख्या रखने से वह महान बने। लेकिन नहीं, हिंदी फ़िल्मों भी यह गल्ती करते हैं। हमे देखना और सोचना चाहिऐ की हम उनको कैसे दिखाते हैं। यह ज़्यादा ज़रूरी हैं। अगर आम बच्चा यह बड़ा कम अल्प-संख्या लोगों को देखे, और वह भी एक ही रुप मे तो वह सोचने लगेगा की अल्प-संख्या ऐसे ही हैं।

तो आज अमरीकी निर्देशक ठीक से महिलाओं को दिखा रहें हैं, कई नौकरी कर रहें हैं, कई घर संभाल रहें हैं। एक ऐसी फिल्म हैं स्तेप्मोम, उस मे जूलिया रॉबर्ट्स नौकरी करती हैं, और सुसन सरेनिदों घर पे बच्चे सँभालने का काम करती हैं , दोनो को अच्छे रुप मे दिखाया हैं। यहाँ तक फिल्म का एक मकसद हैं दिखाने के लिए के दोनो औरतों ठीक हैं। जूलिया को सीख ना पड़ता हैं कि बच्चे को आगे रखना चाहिऐ लेकिन यह कह कर निर्देशक कोलंबस यह दिखाना चाहता हैं की दोनो को जानना पड़ता हैं की दोनो तरीके ठीक हैं।

Friday, October 5, 2007

आज के समाज मे शादी

"आज रिश्तों कि एम्यत न जाने कहाँ खो गया"-- दादी, हम साथ साथ हैं मैं। सही बात। आधुनिक समाज मे यहीं सब से बुरी बात हैं। हम रिश्तों के साथ आते हुए कर्तव्यों को भरी बोज समझते हैं। लड़की लड़के, चचेरे भाईयों और बहनों से मिलने जान बुरा लगता हैं। वह हज़ार बहाने बनातें हैं। क्लास मे आके गर्व से बताते हैं कि वह कमरे मे कैसे छिपे रहे। यह ठीक बात नहें। सब से अव्सोस की बात तो यह हैं की इसकी भूमिका एक चीज़ हे जो खोनी हे नहीं चाहिऐ-- महीलों की आज़ादी। अगर दोनो लोगों काम करें तो दोनो थके घर आते हैं फिर परिवार को कौन जोडे रखें? अव्सोस की बात तो यह हैं की अभी भी ज़िमिदारी औरतों पर पड़ता हैं। एक मेरी अध्यापिका ने कहाँ, अरे, मैं कल वापस आऊंगी मुझे पत्ती के लिए खाना बनाना हैं।" उसे काम क्यों छोड़ना पड़ा? अगर यहीं प्रतिबंद हैं की औरत काम भी करे, और घर भी अकेले संभालना हैं, और काम भी, यह कैसा इंसाफ़ हैं?
गृहस्ती ठीक से तभी चलेगी जब दोनो यह तो एक काम करें, यह दोनो दोनो कामों करें। लेकिन इस बात कर ध्यान रखना ज़रूरी हैं कि कोई परिवार मे एकता बनाने पर भी ध्यान रखें।

Thursday, October 4, 2007

इस पोस्ट को कुछ नहीं जोड़ता

आज मुझे ख़ुशी हुई के मेरे पास के सिनेमा ने एलान किया कि १२ अक्तूबर से वह लागा चुनरी में दाग दिखने वाले हैं। मुझे इस फिल्म से बहुत उमीदों हैं। मेरी ख्वाईश हैं की इस फिल्म वेश्यों की मजबूरी को दिखाएगीदिखाएगी कि कैसे इस लड़की के पास और कोई चारा नहीं था। दिखाएगी कि कड़वाहट कितनी बुरी चीज़ होती हैं।
इस हफ्ते काम कुछ ज्यादा बड़ा हैं। इस लिए मेरे पोस्टें मे ज्यादा अंतर रहा हैं। मे रोज़ पोस्ट नहीं कर पा रहीलेकिन फिर से कोशिश करूंगी, क्योंकि भाषा मे सुधार बाकी हैं, जो सिर्फ अभ्यास से हो सकता हैं। मे यह भी कहूँगी की आप लोगों का संयोग मेरे लिए बहुत कीमती रहा हैं।
पाठशाला मे पढते पढते मैंने बहुत जरूरतों पूरी करने के लिए पढा हैं, लेकिन हिंदी मैं अपने लिए ले रहीं हूँ। में गर्व से और सचाई के साथ कहना चाहती हूँ की मैं हिंदी जानती हूँ। आप मे से किसी ने टिप्पणी मे लिखा था कि मैं सुधर लाने के लिए हिंदी मे पढूं भी ताकी मुझे शब्दों का ठीक प्रयोग भी मालूम पड़े। काश यह ज्यादा करने का वक्त होता! मैंने छुट्टी मे ऐसा किया था, और अभी भी जैसे फुर्सत मिलती हैं करती हूँ। लेकिन, इस सलाह के लिए धन्यवाद

Tuesday, October 2, 2007

गांधी जयंती के मौक़े पे कुछ विचार

आज अक्तूबर २, गांधी जयंती हैं। गांधीजी ने हमारे देश को अंग्रेजों से आज़ाद करवाया। लेकिन उन्होने सिर्फ हमारे तन और राष्ट्रीय-मंडल को आज़ादी नहीं दीं। उन्होने हमारे दिल और दिमाग को भी आज़ादी दी। अंग्रेजों ने हम हिंदुस्तानियों को अलग कर दिया। मैं बिल्कुल नहीं कह रहीं की अँग्रेज़ ने हमे तोड़ा, हम कभी एक थे ही नहीं, लेकिन उन्होने हमारे असमता का फायदा उठाया और उसको बड़ा किया। उन्होने सोचा की अगर वह हिंदुओं और मुसलमानों के भीतर मतभेद पैदा करें तो उनका राज आसान हो जाएगा। सिर्फ थोड़ी देर पहले कई लोग अपने को हिंदु-मुस्लिम बताते थे। लेकिन सरकार ने उनको ऐसे रहने नहीं दिया। उन्होने एलन किया की सब को निर्णय लेना होगा की वह हिंदु हैं ईसाई, यह मुसलमान। अंग्रेजों ने जताया कि हिंदुस्तानियों बुरे थे। उनको कुछ नहीं मालूम। हम असभ्य हैं, और सभ्य बनने के लिए हिंदुस्तानियों को अंग्रेजों के साथ सम्मिलित होना होगा। और हम मानते गए. हमने अपने पे और खासकर एक दूसरे पे भरोसा नहीं किया।
दुःख की बात तो यह हैं कि उनका यह कार्य नीति सफ़ल हुआ। हम अंग्रेजों के बजाय एक दूसरे से लड़
उठे। और मैं कभी नहीं कहूं गी कि मुसलमानों के शिकायतों सही नहीं थे। उनके डर के पीछे असलियत छिपा थी। लेकिन यह भी सच हैं कि अंग्रेजों के नीती का भी हाथ था। आज भी हम एक दूसरे से लड़ रहें हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई मे सेंकाड़ो लोग मारे गए और दोनो देशों के प्रगति पे रूकावट डाले रखी हैं।
गांधीजी ने प्रयतन किया की वह हमे सिखाएं की हम मे खासीयत हैं। उन्होने एक नई फल्सफाई का निर्माण किया। सुच मे उनके "सत्याग्राहा" मे अन्ग्रीज़ी और इस्लामी ख्यालों थे, लेकिन उन्होने इस को और अहिंसा को देशी बतलाया। अपने अंतरात्मा को जगाया। उन्होने एकता पाना चाहा। लेकिन, काश। आज तक हमने वह नहीं पाय। उनको किसी विदेशी ने नहीं मारा, बल्की एक हिंदुस्तानी ने मारा। एक हिंदुस्तानी जो एकता नहीं चाहता था। गोडसे के पास अपने विचार थे, लेकिन उसके पीची जो हाथ था वह था सावार्कार का। और अगर उस के, यह उसके भयानक सोच पे बारे मे जानना चाहते हो तो आप उसका लिखा हुआ हिंदुत्व पढ़ें।

Sunday, September 30, 2007

हिंदु-मुस्लिम भाई-भाई

"इशा और अग्नी के लिए और वह सरे बच्चे जो मारा-मारी के चाव मे बड़े हो रहें हैं। मेरी आशा हैं कि वह भी उस जागां को जाने जहाँ पे मैं बड़ा हुआ था-वह जन्नत जिसका नाम कश्मीर हैं।"
"लहऊँ, लुहान हो गई ज़मीन यह देवताओं की।"
यह दो लाईने आतंकवाद के सचाई के बारे मे कुछ सचाई बताती हैं। यह ज़िक्र करती हैं कि इस लड़ाई मे अनेक मासूम जानें मिट गईं हैं और कड़ोड़ो का नुक्सान हुआ है। आतंकवाद मे यह सब से बुरी बात हैं की यह बेगुनाओं को मारते हैं। वह लोगों के दिल मे भए और नफरत पैदा करते हैं। यह ही हिंदुस्तान मे हुआ हैं। आप देखेंगे कि हर आक्रमण के बाद एक और हिंसा कायम होती हैं। गुजरात मे जो मारा-मारी हुई थी उस के बाद कई अच्छी लोग भी मुसलमानों से नफरत करने लगे।
यह भी बहुत, बहुत गलत हैं। हम सब मुसलमानों को थोड़े के कार्यों के लिये कसूरवार क्यों ठहर्वाएं। "तीजा रंग था तेरा। तेरे ढंग से जीया"-चक दे (मौला मेरे)।
इस ब्लोग मे बार बार मे इस बात बे जोर करती हूँ कि हम शांती और एकता के साथ रहें। भाईपन। हम जब तक मुसलमानों को दोस्त और भाई न बनाएं तब तक चेन से नहीं रह पाएँगे।