बॉलीवुड दुनिया का सबसा बढ़ा फिल्म इंडस्ट्री है। और इसमे बहुत गुण हैं, इन मे से एक कि दुनिया मे बॉलीवुड हिन्दुस्तानी सिनेमा का नाम लाता है। लेकिन मेरी उससे एक बहुत बड़ी शिक़ायत है। वह महिलाओं को कैसे पेश करने लगा है। ११९४ के बाद औरतों को यह बहुत असहाय और दुर्बल रुप मे दिखातें हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि पहले ऐसे कम होता था। १९७० और १९८० की दशक मे हिट, और हिट की परिभाषा है कि फिल्म ने बहुत पैसा कमाया यह आज भी जन्ता उन फिल्मों को देख रही है, फिल्मों मे औरत बहुत मज़बूत होती हैं और खुद फैसले लेती हैं। अल्प संख्यक लोगों जैसे मुसलमानों को जिस तरह पेश किया गया है उससे मुझे ज्यादा फर्क नज़र नहीं आया सिवाय की अब कई फिल्मों मे उन पर हुए ज़ुल्म का ज़्यादा ज़िक्र होता है और फिल्मों मे उनका रोल ज़्यादा, लम्बा और गहरा, होता है। बस एक भिन्नता है जो औरतों और मुसलमानों दोनो के चित्रण मे दिखता है। आज के कई निर्देशक सफल फिल्म बनाते हैं लोगों को दिखाने के लिए कि उन लोगों पर क्या और कैसे ज़ुल्म हो रहें हैं। इस पेपर मे मैं दो ऐसे फिल्म के बारे मे भी जिक्र करूंगी। लेकिन ज़्यादातर फिल्म के विश्लेषण से दिखाउंगी कि आज के सिनेमा में औरतों को दुर्बल दिखातें हैं और यह बुरा क्यों हैं। १९९४ मे 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' और 'हम आपके हैं कौन' कि सफलता ने इंडस्ट्री का हुलिया ही बदल दिया था। दोनो फिल्मों ने रेकॉर्ड्स तोड़ दिए थे (बक्सोफ्फिकेंडिया.कॉम)। और उनकी खास बात? जहाँ और निर्देशक खून-खराबा, कम कपडे और रंगीली फिल्में बना रहे थे ये दोनो फिल्में परिवार के साथ देखने योग्य थे और हैं। 'दिलवाले' मे एक खून-खराबा का सीन भी है लेकिन छोटा है। और इस के इलावा दोनो फिल्मो का असर ख़ुशी, संस्कृति और संस्कारों पर पहला है। फिल्म मे लड़कियाँ हमेशा पूरे कपड़े पहनती हैं। एक और भिन्नता। दोनो लड़कियाँ दुर्बल हैं। सिमरन पापा के आज्ञा के खिलाफ नहीं जाती। जब पापा घोषित करते हैं कि वह उन्के साथ पंजाब जाकर कुलजीत से शादी करेगी, वह भाग के राज के पास नहीं जाती। बल्की सिर्फ रोती है। राज की राह देखती है और समझती है कि सिर्फ राज ही मुझे इस शादी से बचा सकता है। 'हम आपके हैं कौन' मे निशा कुछ नहीं कहती जब निशा को पता चलता है कि माता-पिता ने समझा कि उसने राजेश के साथ शादी करने के लिए सहमती दी है जबकी वह प्रेम से प्यार करती है। इस के इलावा भी इस फिल्म मे जो औरत मन की बात बोलती है वह है मामी और वह खलनायक के रुप मे आती है। पूजा, निशा की दीदी, एक और आदरणीय औरत हैं और वह अपना त्याग करती हैं। तो इन दोनो फिल्मों मे एक समानता है जिसने उन्के बाद आने वाले फिल्मों पर बहुत असर डाला था। और मेरा मानना है कि इस लिए १९९४ के पहले के और बाद के फिल्मो मे इतनी असमानता है।
१९९४ के बाद सफल फिल्मो मे औरत दुर्बल होती हैं और मर्द की प्रतीक्षा करती हैं। 'कल हो ना हो' मे नैना अपने जीवन को सुधार न सकी। अमन आया और उसने सब कुछ ठीक कर दिया। नैना, यह जेनी, नैना की माँ, साहस क्यों न उठा पाई परिवार के जीवन मे ख़ुशी लाने के लिए? अमन ने क्या किया? हिम्मत करके दादी को उसके बेटे का सच बताया। उसने दिमाग लगा कर व्योपार मे का कुछ उपाय सोचा। 'राजा hइन्दुस्तानी', जो १९९८ की हिट पिक्चर है, उसमे राजा बच्चा चुरा लेता है। करिश्मा क्या कर पाती है-कुछ नहीं, वह रोती है और उससे विनती करती है और पापा की मदद मांगती है। 'एक रिश्ते' मे भी लड़कियां लड़कों की प्रतीक्षा करतीं हैं जब भाई आता है तब ही कुछ बदलाव आता है। 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' मे पूजा रोहन की मदद करती है लेकिन उसने जीजाजी के लिए
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