रोहन को क्यों नहीं खोजा? जया बादमे पति को ठुकराती है लेकिन पहले वह जानती है कि बेटा अंजली से प्यार करता है पर नैना से सगाई के रस्मों को आगे बढ़ने देती है। यह सिर्फ मैं नहीं कह रही, रेडिफ.कॉम ने कुछ दिन पहले लिखा था की ज्यादातर यश राज, २००६ के सबसे सफल फिल्म इंडस्ट्री, के हिरोईन कितना दुर्बल हो गयी है (गट्सी यश राज लेडीज़)। और यह हमने बहुत फिल्मों मे देखा है।
यह पहले नहीं होता था। अगर आप 'राम लखन' देखेंगे तो इसमे कुछ और ही होता है। जहाँ जया पति की गलतीयों को चुपचाप सहन करती हैं, गीता, डिम्पल, आगे बढ़ कर कुछ करती है। हर फैसले मे मदद करती है। यहाँ तक कि जब राम और लखन लड़ रहे होते हैं वही लड़ाई रोकती है। और उस कमरे मे मर्द भी शामिल थे जो लड़ाई रोकते अगर गीता आगे न बढती। लेकिन गीता आगे बढ़ी। इस ही फिल्म मे माधुरी ने भी बाप के गलत फैसले का विरोध किया और "राम जी बढ़ा दुःख दीना" गाने से अपने से निर्णय लिया और कुछ किया। 'कभी कभी' मे भी नीतू सिंह ने अपने से निर्णय लिया और चल पड़ीं माँ को ढ़ून्डने। 'प्रेम रोग' मे बड़ी माँ ने दो तीन बार मर्द के फैसले को ठुकराया. तो औरतों को दुर्बल दिखाना नई बात नहीं है लेकिन यह रोक दिया गया था और सिर्फ अभ फिरसे आ रहा है। पहले कभी कभी मर्दों को दुर्बल दिखाते थे। 'कभी कभी' यह फिल्म के बारे मे सोचना उचित है क्योंकि यश राज फिल्म्ज़ जिसने दिलवाले बनाया और आज कल बहुत सफल फिल्मों के पीछे है, इसी ने 'कभी कभी' बनाया और इस फिल्म मे अमिताभ खलनायक है, वह अतीत को नहीं छोड़ सकता था और राखी छोड़ देती है और सफल बनती है। और अमिताभ को औरत की आवश्यकता होती है। 'चांदनी' मे भी ऋषी कपूर को श्रीदेवी की मदद चाहिए होती है। और जहाँ 'कल हो न हो' में नैना, दिलवाले मे सिमरन, रो कर कुछ नहीं करती, 'लम्हे' मे विरेन रोता है घम मे डूबा रहता है, लेकिन कुछ नहीं करता।
यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि फिल्में लोगों पर बहुत असर करते हैं। एक वजह, यह है कि भारत मे अनपढ़ की संख्या ज़्यादा है। रामानंद सागर के 'रामायण' मे अरुण गोविल ने रामचंद्र को पेश किया। उन्होने कहा कि इस के बाद कई लोग उनको भगवान मानने लगे (फ्रॉम रील लाईफ टू रियल लाईफ )। गोविल भगवान नही है। लेकिन कई लोग जिनकी जानकारी कम है उनको फर्क पता नहीं चला कि क्या सचा है और क्या नकली. मैं यह कहानी इस लिए दोहरा रहीं हूँ ताकि आप को पता चले कि फिल्मों का क्या असर होता है। इस असर के कारण ही यह प्रोजेक्ट का कुछ माईना है। और असर कि वजह से हम आर्ट फिल्म, जो लोग बनाते है लेकिन ज़्यादा कमाती नहीं है क्योंकि कम दर्शकों होते हैं, के बारे मे बात नहीं कर रहे। उन फिल्मो मे बहुत ऐसे चीजों पर विचार होता है लेकिन यह जनता तक नहीं पहुँचता। इस लिए इन का असर कम होता है। हिन्दुस्तान मे बहुत लोग बॉलीवुड, जो मेनस्ट्रीम सिनेमा है, वह देखते हैं।
प्रोजेक्ट मे दिखाया गया है कि निर्देशक को सोचना चाहिए कि फिल्म मे क्या कर रहें हैं। सब ही को पता है कि फिल्म मे पहनाव समाज पर बहुत असर करता है। 2001 के देवदास के बाद "आइश्वरिया सेटें" बहुत बिकने लगीं , मेरे पापा ने मेरे लिए भी एक खरीद के दिया था। कभी बुरे चीज़ें भी फिल्म से सीखा जाता है और बहुत बार निर्देशक कहते हैं, जब लोग उन्हें कसूरवार मानते हैं, कि मैंने तो सिर्फ फिल्म बनाया था। इस तर्क मे भी बुनियाद है, लेकिन यह पूरी सफाई नहीं हो सकती। निर्देशक को सोचना चाहिए कि उनके फिल्म का क्या असर हो सकता है। और इस लिए मैं समस्या बताने मे इतना वक्त बिता रही हूँ।
यह पेपर बताता नहीं है कि महिलाओं को बुरी तरह पेश क्यों किया जा रहा है। आश्चर्य कि बात तो यह है कि औरतों को दुर्बल रोती हुई, और मर्दों पर निर्भर १९९४ के बाद ही दिखाया जा रहा है। एक बदलाव का कारण है 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'हम आपके हैं कौन' की सफलता.इन दोनो फिल्मों ने रेकॉर्ड तोड़कर कमाया। तो इसके बाद निर्देशक ने सोचा कि बहुत लोगों यही चाहते हैं। लेकिन उनका भी कोई जिम्मेदारी है। उनके पता होना चाहिए कि औरतों को ऐसे पेश करने से लोगों सोचने लगेंगे कि औरतों इसी के काबिल हैं हमेशा रोती rahtee है । वह यह नहीं जान पाएँगे, कि जैसे अमर अकबर एन्थोनी मे नीतू के बहुत रंग थे, वैसे बहुत औरतों के हैं। वह घर चला सकती हैं, काम भी कर सकती हैं और लड़ भी सकती हैं kaash हम यह फिल्म मे भी देख सकते ।
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