Sunday, December 23, 2007

"चहक चहक महक महक
ख़ुशी छलक छलक"

Wednesday, December 12, 2007

प्रधान मंत्री
भारतीय सरकार से जुड़े हुए शब्द

Monday, December 10, 2007

शब्द १६६७

वर्क साईटिड:

आधुनिक शादी.” एन. दी.टी.वी। राजश्री.कॉम

बोक्सोफ्फिसरेपोर्ट्स.कॉम

“गट्सी यश राज लेडीज़” २७ अगस्त २००७। रेदिफ्फ़.कॉम



बिब्लीओग्रफी:
अमर अख़बार एन्थोनी। १९७७। निर्देशक: मनमोहन देसाई। अभिनेता: नीतू सिंह, परवीन बबी, अमिताभ बचन, ऋषि कपूर। कमालिस्तान स्टुडीओस।
एक रिश्ता । २००१। निर्देशक: सुनील दर्शन। अभिनेता: अक्षय कुमार, अमिताभ बचन, जूही चावला, राखी, मोनीश बहल। श्री कृष्णा इन्तेर्नाशानल

चांदनी। १९८९। निर्देशक: यश छोपरा। अभिनेता: ऋषि कपूर, चांदनी, विनोद खन्ना, वहीदा रहमान। यश राज फिल्म्ज़।

दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगी। १९९४। निर्देशक: आदित्य छोपरा। अभिनेता: शाहरुख़ खान, काजल, अमरीश पूरी, फरीदा जलाल, अनुपम खेर। यश राज फिल्म्ज़.

हम आपके हैं कौन। १९९४। निर्देशक: सूरज बर्जतिया। अभिनेता: सलमान खान, माधुरी दिक्षित, अलोक नाथ, रीमा लागू, अनुपम खेर। राजश्री।

कभी कभी। १९७६. निर्देशक : यश छोपरा। अभिनेता: अमिताभ बचन, राखी, शशी कपूर, वहीदा रहमान, नीतू सिंह, ऋषि कपूर। यश राज फिल्म्ज़।
कभी ख़ुशी कभी घम। २००१। निर्देशक: कारन जोहर। अभिनेता: शाह रुख खान, काजल, अमिताभ बचन, जया बचन, करीना कपूर, ऋतिक
रोशन। धर्मं प्रोडुक्ष्न्स

कल हो ना हो। २००३।निर्देशक: निखिल अडवानी। अभिनेता: शाह रुख खान, जाया बचन, प्रीती जिंटा, सैफ अली खान। धर्मा प्रोदुक्षंस

लम्हे। १९९१। निर्देशक: यश छोपरा। अभिनेता: अनिल कपूर, श्रीदेवी, वहीदा रहमान, अनुपम खेर। यश राज फिल्म्ज़।

राम लखन १९८९ निर्देशक: सुभाष घई। अभिनेता: अनिल कपूर, माधुरी दिक्षित, जैकी श्रोफ्फ़, डिम्पल कापडिया, राखी. मुक्त आर्टस

प्रेम रोग। १९८२। निर्देशक: राज कपूर। अभिनेता: ऋषि कपूर, पदमिनी कोह्लापुरी, शमी कपूर, नंदा, तनुजा। आर। के फिल्म्ज़।

रंग दे बसंती। २००६। निर्देशक: राकेश ॐ प्रकाश मेहरा। अभिनेता: आमिर खान, सोहा अली खान, सिद्धार्थ, शर्मन जोशी, किरोन खेर, अतुल कुलकर्णी।

Wednesday, December 5, 2007

लड़ाई और झगड़ा

जहाँ भी देखों झगड़े हो रहे हैं। कई घरों मे बहुत झगड़े, दोस्तों और सह्पाटी के बीच लड़ाईयां। देशों और नेताओं मे युद्ध हो रहें हैं। और सबसे बुरी बात है कि मैं पूरी तरह इन पर गुस्सा भी नहीं कर सकती. मैं पहले मानती थी की कि चुनाव जीतने के लिए ख़ुशी भरे एड और सिर्फ कानून और अपने सोच पर विचार करना काफी है। हम यह 'मड-स्लिंगिंग' यह आरोप लगाना जो इन्होने बहुत पहले किया हो उसको बाहर जनता के सामने लाना और एड मे रंगीले तरीकों से पेश करना यह हम राजनीती से निकाल सकते हैं. लेकिन मैं बड़ी हो चुकी हूँ। मैंने ऐसे २ चुनाव देखे है जहाँ लोगों ने 'पोसिटिव चुनाव' की घोषणा की और उनके पक्ष ने सिर्फ अपने गुणों के बारे मे बखान किया। उन्होने दूसरे पक्ष पर ठोकर नहीं मारी। दोनो अभीलाशी चुनाव हारे। मेरा तजुर्बा कम है लेकिन मे भी उन अभीलाशीयों के लिए सच नेगातिव एड सोच सकती हूँ जो उन्हें जीता सकता। मेरा मानना है कम से कम एक चुनाव मे दूसरे पक्ष ने नेगेटिव काम्पेनिंग से उन्हें हराया।
और दोस्तों के बीच भी यह कहना कि कभी लड़ो मत, गलत है। क्योंकि बात को अंदर रखने से दूरियां पैदा हो जातीं हैं। परिवार मे भी। मेरे एक दोस्त और मैं दस साल से दोस्त हैं, और हम एक बार भी नहीं लड़े। इस साल हम लड़ने के नजदीक आए दो बार। पहली बार हम जिस बात पर लड़ने के लिए तैयार थे उससे दूर रहना शुरू किया। दूसरी बार मुझे उसका एक वाक्य बहुत बुरा लगा। मैं कुछ कहना चाहती हूँ लेकिन मुझे डर है की वह बुरा मान जाएगी। मेरे बहन और मे एक बार लड़े। एक दूसरी के ऊपर खूब चिलाए। लेकिन उस के बाद और भी नजदीक आए क्योंकि हमने क्रोध निकाल दिया और जो मैं गलत कर रही थी मैंने सुधारा और जो वह कर रही थी उसने। तो इस से हमारी लड़ाई का कुछ फैदा हुआ। और हम एक दूसरे से नाराज़ भी न हुए।
मेरा इस पोस्ट के बिल्कुल यह नहीं मतलब की लड़ना चाहिए। यह गलत है। लेकिन बात को अंदर भी नहीं रखना चाहिए। मैंने और अपनी बहन ने कभी गाली का इस्तिमाल नहीं किया लेकिन हमने यह कहा कि जो तुम यह कर रहे हो मुझे बहुत बुरा लग रहा है। और मैंने सब कुछ नही बताया, लेकिन इतना बता दिया कि मैं उससे कम नाराज़ होती हूँ। हमे एक सीमा के अंदर कहने और लड़ने का हक हे। यह सीमा है कि कम से कम लड़ें
और लड़ते समय सिर्फ कम से कम बात कहनी चाहिए और वह भी सोचके।
चुनाव के अभीलाशीयों को भी एक सीमा पार नहीं करना चाहिए लेकिन जब तक जनता ज़्यादा सोचने नहीं लगती हमे नेगातिव काम्पेनिंग का इस्थिमाल करना ही पडेगा।

Saturday, December 1, 2007

रोहन को क्यों नहीं खोजा? जया बादमे पति को ठुकराती है लेकिन पहले वह जानती है कि बेटा अंजली से प्यार करता है पर नैना से सगाई के रस्मों को आगे बढ़ने देती है। यह सिर्फ मैं नहीं कह रही, रेडिफ.कॉम ने कुछ दिन पहले लिखा था की ज्यादातर यश राज, २००६ के सबसे सफल फिल्म इंडस्ट्री, के हिरोईन कितना दुर्बल हो गयी है (गट्सी यश राज लेडीज़)। और यह हमने बहुत फिल्मों मे देखा है।
यह पहले नहीं होता था। अगर आप 'राम लखन' देखेंगे तो इसमे कुछ और ही होता है। जहाँ जया पति की गलतीयों को चुपचाप सहन करती हैं, गीता, डिम्पल, आगे बढ़ कर कुछ करती है। हर फैसले मे मदद करती है। यहाँ तक कि जब राम और लखन लड़ रहे होते हैं वही लड़ाई रोकती है। और उस कमरे मे मर्द भी शामिल थे जो लड़ाई रोकते अगर गीता आगे न बढती। लेकिन गीता आगे बढ़ी। इस ही फिल्म मे माधुरी ने भी बाप के गलत फैसले का विरोध किया और "राम जी बढ़ा दुःख दीना" गाने से अपने से निर्णय लिया और कुछ किया। 'कभी कभी' मे भी नीतू सिंह ने अपने से निर्णय लिया और चल पड़ीं माँ को ढ़ून्डने। 'प्रेम रोग' मे बड़ी माँ ने दो तीन बार मर्द के फैसले को ठुकराया. तो औरतों को दुर्बल दिखाना नई बात नहीं है लेकिन यह रोक दिया गया था और सिर्फ अभ फिरसे आ रहा है। पहले कभी कभी मर्दों को दुर्बल दिखाते थे। 'कभी कभी' यह फिल्म के बारे मे सोचना उचित है क्योंकि यश राज फिल्म्ज़ जिसने दिलवाले बनाया और आज कल बहुत सफल फिल्मों के पीछे है, इसी ने 'कभी कभी' बनाया और इस फिल्म मे अमिताभ खलनायक है, वह अतीत को नहीं छोड़ सकता था और राखी छोड़ देती है और सफल बनती है। और अमिताभ को औरत की आवश्यकता होती है। 'चांदनी' मे भी ऋषी कपूर को श्रीदेवी की मदद चाहिए होती है। और जहाँ 'कल हो न हो' में नैना, दिलवाले मे सिमरन, रो कर कुछ नहीं करती, 'लम्हे' मे विरेन रोता है घम मे डूबा रहता है, लेकिन कुछ नहीं करता।
यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि फिल्में लोगों पर बहुत असर करते हैं। एक वजह, यह है कि भारत मे अनपढ़ की संख्या ज़्यादा है। रामानंद सागर के 'रामायण' मे अरुण गोविल ने रामचंद्र को पेश किया। उन्होने कहा कि इस के बाद कई लोग उनको भगवान मानने लगे (फ्रॉम रील लाईफ टू रियल लाईफ )। गोविल भगवान नही है। लेकिन कई लोग जिनकी जानकारी कम है उनको फर्क पता नहीं चला कि क्या सचा है और क्या नकली. मैं यह कहानी इस लिए दोहरा रहीं हूँ ताकि आप को पता चले कि फिल्मों का क्या असर होता है। इस असर के कारण ही यह प्रोजेक्ट का कुछ माईना है। और असर कि वजह से हम आर्ट फिल्म, जो लोग बनाते है लेकिन ज़्यादा कमाती नहीं है क्योंकि कम दर्शकों होते हैं, के बारे मे बात नहीं कर रहे। उन फिल्मो मे बहुत ऐसे चीजों पर विचार होता है लेकिन यह जनता तक नहीं पहुँचता। इस लिए इन का असर कम होता है। हिन्दुस्तान मे बहुत लोग बॉलीवुड, जो मेनस्ट्रीम सिनेमा है, वह देखते हैं।
प्रोजेक्ट मे दिखाया गया है कि निर्देशक को सोचना चाहिए कि फिल्म मे क्या कर रहें हैं। सब ही को पता है कि फिल्म मे पहनाव समाज पर बहुत असर करता है। 2001 के देवदास के बाद "आइश्वरिया सेटें" बहुत बिकने लगीं , मेरे पापा ने मेरे लिए भी एक खरीद के दिया था। कभी बुरे चीज़ें भी फिल्म से सीखा जाता है और बहुत बार निर्देशक कहते हैं, जब लोग उन्हें कसूरवार मानते हैं, कि मैंने तो सिर्फ फिल्म बनाया था। इस तर्क मे भी बुनियाद है, लेकिन यह पूरी सफाई नहीं हो सकती। निर्देशक को सोचना चाहिए कि उनके फिल्म का क्या असर हो सकता है। और इस लिए मैं समस्या बताने मे इतना वक्त बिता रही हूँ।
यह पेपर बताता नहीं है कि महिलाओं को बुरी तरह पेश क्यों किया जा रहा है। आश्चर्य कि बात तो यह है कि औरतों को दुर्बल रोती हुई, और मर्दों पर निर्भर १९९४ के बाद ही दिखाया जा रहा है। एक बदलाव का कारण है 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'हम आपके हैं कौन' की सफलता.इन दोनो फिल्मों ने रेकॉर्ड तोड़कर कमाया। तो इसके बाद निर्देशक ने सोचा कि बहुत लोगों यही चाहते हैं। लेकिन उनका भी कोई जिम्मेदारी है। उनके पता होना चाहिए कि औरतों को ऐसे पेश करने से लोगों सोचने लगेंगे कि औरतों इसी के काबिल हैं हमेशा रोती rahtee है । वह यह नहीं जान पाएँगे, कि जैसे अमर अकबर एन्थोनी मे नीतू के बहुत रंग थे, वैसे बहुत औरतों के हैं। वह घर चला सकती हैं, काम भी कर सकती हैं और लड़ भी सकती हैं kaash हम यह फिल्म मे भी देख सकते ।

नए बॉलीवुड और महिलाएं।

बॉलीवुड दुनिया का सबसा बढ़ा फिल्म इंडस्ट्री है। और इसमे बहुत गुण हैं, इन मे से एक कि दुनिया मे बॉलीवुड हिन्दुस्तानी सिनेमा का नाम लाता है। लेकिन मेरी उससे एक बहुत बड़ी शिक़ायत है। वह महिलाओं को कैसे पेश करने लगा है। ११९४ के बाद औरतों को यह बहुत असहाय और दुर्बल रुप मे दिखातें हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि पहले ऐसे कम होता था। १९७० और १९८० की दशक मे हिट, और हिट की परिभाषा है कि फिल्म ने बहुत पैसा कमाया यह आज भी जन्ता उन फिल्मों को देख रही है, फिल्मों मे औरत बहुत मज़बूत होती हैं और खुद फैसले लेती हैं। अल्प संख्यक लोगों जैसे मुसलमानों को जिस तरह पेश किया गया है उससे मुझे ज्यादा फर्क नज़र नहीं आया सिवाय की अब कई फिल्मों मे उन पर हुए ज़ुल्म का ज़्यादा ज़िक्र होता है और फिल्मों मे उनका रोल ज़्यादा, लम्बा और गहरा, होता है। बस एक भिन्नता है जो औरतों और मुसलमानों दोनो के चित्रण मे दिखता है। आज के कई निर्देशक सफल फिल्म बनाते हैं लोगों को दिखाने के लिए कि उन लोगों पर क्या और कैसे ज़ुल्म हो रहें हैं। इस पेपर मे मैं दो ऐसे फिल्म के बारे मे भी जिक्र करूंगी। लेकिन ज़्यादातर फिल्म के विश्लेषण से दिखाउंगी कि आज के सिनेमा में औरतों को दुर्बल दिखातें हैं और यह बुरा क्यों हैं। १९९४ मे 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' और 'हम आपके हैं कौन' कि सफलता ने इंडस्ट्री का हुलिया ही बदल दिया था। दोनो फिल्मों ने रेकॉर्ड्स तोड़ दिए थे (बक्सोफ्फिकेंडिया.कॉम)। और उनकी खास बात? जहाँ और निर्देशक खून-खराबा, कम कपडे और रंगीली फिल्में बना रहे थे ये दोनो फिल्में परिवार के साथ देखने योग्य थे और हैं। 'दिलवाले' मे एक खून-खराबा का सीन भी है लेकिन छोटा है। और इस के इलावा दोनो फिल्मो का असर ख़ुशी, संस्कृति और संस्कारों पर पहला है। फिल्म मे लड़कियाँ हमेशा पूरे कपड़े पहनती हैं। एक और भिन्नता। दोनो लड़कियाँ दुर्बल हैं। सिमरन पापा के आज्ञा के खिलाफ नहीं जाती। जब पापा घोषित करते हैं कि वह उन्के साथ पंजाब जाकर कुलजीत से शादी करेगी, वह भाग के राज के पास नहीं जाती। बल्की सिर्फ रोती है। राज की राह देखती है और समझती है कि सिर्फ राज ही मुझे इस शादी से बचा सकता है। 'हम आपके हैं कौन' मे निशा कुछ नहीं कहती जब निशा को पता चलता है कि माता-पिता ने समझा कि उसने राजेश के साथ शादी करने के लिए सहमती दी है जबकी वह प्रेम से प्यार करती है। इस के इलावा भी इस फिल्म मे जो औरत मन की बात बोलती है वह है मामी और वह खलनायक के रुप मे आती है। पूजा, निशा की दीदी, एक और आदरणीय औरत हैं और वह अपना त्याग करती हैं। तो इन दोनो फिल्मों मे एक समानता है जिसने उन्के बाद आने वाले फिल्मों पर बहुत असर डाला था। और मेरा मानना है कि इस लिए १९९४ के पहले के और बाद के फिल्मो मे इतनी असमानता है।
१९९४ के बाद सफल फिल्मो मे औरत दुर्बल होती हैं और मर्द की प्रतीक्षा करती हैं। 'कल हो ना हो' मे नैना अपने जीवन को सुधार न सकी। अमन आया और उसने सब कुछ ठीक कर दिया। नैना, यह जेनी, नैना की माँ, साहस क्यों न उठा पाई परिवार के जीवन मे ख़ुशी लाने के लिए? अमन ने क्या किया? हिम्मत करके दादी को उसके बेटे का सच बताया। उसने दिमाग लगा कर व्योपार मे का कुछ उपाय सोचा। 'राजा hइन्दुस्तानी', जो १९९८ की हिट पिक्चर है, उसमे राजा बच्चा चुरा लेता है। करिश्मा क्या कर पाती है-कुछ नहीं, वह रोती है और उससे विनती करती है और पापा की मदद मांगती है। 'एक रिश्ते' मे भी लड़कियां लड़कों की प्रतीक्षा करतीं हैं जब भाई आता है तब ही कुछ बदलाव आता है। 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' मे पूजा रोहन की मदद करती है लेकिन उसने जीजाजी के लिए

माँ-बाप का आदार

सोमवार के इम्तिहान के लिए मैं चीफ की दावत कहानी पढ़ रही थी फिरसे। और मुझे फिरसे उस बेटे को थाप्पर मरना चाहा। कोई माँ के साथ ऐसा बर्ताव करता है? नहीं, मुझे कहना चाहिए कि ऐसा बर्ताव क्यों लोग करते हैं और क्यों? मेरे भी जान पहचान मे ऐसे लोग हैं जो अपने माँ यह सास के साथ ऐसे बदतमीजी करतें हैं। एक बार तो मुझे लगा कि मैं उस के बेटी से कुछ कह ही दूंगी। वह माँ को छोड़ देतीं है। बहुत काम करवाती है। यहीं कहानी मे भी होता है, बेटा माँ को आदेश देता हैं! यह उल्टी गंगा नहीं हुई क्या?
माँ बाप प्यार से हमे पालते हैं। इस कहानी मे माँ ने अपने सारे जेवर बेटे के पढाई के लिए बेच दिए थे। माँ इसका एक बार जिक्र करती है जब बेटा कहता है कि तुम कुछ चूड़ी-वूडी क्यों नहीं पहना। माँ का शुक्रियादर करने के बजाए वह झुन्झुला उठता है। आपने जो पैसा डाला उस का कुछ रिटर्न भी तो मिला! मैं दुगना खरीद के दे सकता हूँ। ऐसे बात करना उसको शोभा नहीं देता। माँ को वह इतना डराता है। कभी मुझे लगता है मुझे ऐसे माँ और बाप के लिए घर खोलना चाहिए। अगर आप को लगता है कि आप के माता-पिता आप के लिए बोज हैं उनपे ज़ुल्म मत करों, यहाँ छोड़ दो और मे उनका देख्बाल करूंगी। रवी चोपडा के बघ्बान मे भी यही कहानी दिखाया गया। राज ने सारा पैसा बच्चों पर खर्च दिया और सोचा फिर रिटायर करके बचे के साथ समय बिता लूँ। लेकीन बचों को लगा कि हाए कैसी आपाती आ गयी। उनको कुछ कहने के बजाए, यह ज़्यादा अच्छा होता, वह ज़ुल्म वरते हैं। चीफ की दावत मे भी माँ कहती है कि हरिद्वार भेज दो, यह भाई के पास, लेकिन न। नौकर चाहिए यह लोग क्या सोचेंगे। लोगों कि परवाह मत करों। पता ही चल जाता है कि ध्यान कौन रख रहा है और दिखावा कौन।
माँ और बाप के वापिस देना हमारा कर्तव्य है अगर उनको प्यार देकर इस कर्तव्य का पालन नहीं कर सकते तो झूट भी मत बोलो।