"आज रिश्तों कि एम्यत न जाने कहाँ खो गया"-- दादी, हम साथ साथ हैं मैं। सही बात। आधुनिक समाज मे यहीं सब से बुरी बात हैं। हम रिश्तों के साथ आते हुए कर्तव्यों को भरी बोज समझते हैं। लड़की लड़के, चचेरे भाईयों और बहनों से मिलने जान बुरा लगता हैं। वह हज़ार बहाने बनातें हैं। क्लास मे आके गर्व से बताते हैं कि वह कमरे मे कैसे छिपे रहे। यह ठीक बात नहें। सब से अव्सोस की बात तो यह हैं की इसकी भूमिका एक चीज़ हे जो खोनी हे नहीं चाहिऐ-- महीलों की आज़ादी। अगर दोनो लोगों काम करें तो दोनो थके घर आते हैं फिर परिवार को कौन जोडे रखें? अव्सोस की बात तो यह हैं की अभी भी ज़िमिदारी औरतों पर पड़ता हैं। एक मेरी अध्यापिका ने कहाँ, अरे, मैं कल वापस आऊंगी मुझे पत्ती के लिए खाना बनाना हैं।" उसे काम क्यों छोड़ना पड़ा? अगर यहीं प्रतिबंद हैं की औरत काम भी करे, और घर भी अकेले संभालना हैं, और काम भी, यह कैसा इंसाफ़ हैं?
गृहस्ती ठीक से तभी चलेगी जब दोनो यह तो एक काम करें, यह दोनो दोनो कामों करें। लेकिन इस बात कर ध्यान रखना ज़रूरी हैं कि कोई परिवार मे एकता बनाने पर भी ध्यान रखें।
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