Saturday, November 10, 2007

परिवार के प्रती धर्म

क्लास मे बुधवार को एक बात हुई थी जो अभी भी मेरे मन मे है। एक लड़का बता रहा था कि कैसे वह अपने बारे मे ज़्यादा सोचता है। उसका कहा भी ठीक था। उसने बोला कि ज़िंदगी के जिस मोड़ पर वह और हम हैं वह जिन्दागी बना ने का है। इस मे थोडा स्वार्थ आ ही जाता है। लेकिन मुझे लगता हैं कि यह गलत है। उसने ठीक कहा था कि वह उस के नज़ारिया से वह ठीक था। छूती उमर से ही वह बाहर पढाई के लिए भेजा गया था। मेरी पृष्टभूमि कुछ और है। मेरी पहली ज़िमिदारी हमेशा अपने परिवार के प्रती ही रहा है। आज भी मैं घर पर घर कि देख्बाल कर रहीं हूँ ताकी मेरे माता-पिता निश्चिंत अवकाश पर जा सकें। पौदों को पानी देना, दोस्तों जिनके इवेंट्स आ रहें हो उनके लिए तौफे लेना और जो भी पापा को यह घर को फोन करता हो उनसे बात करना मेरी ज़िमिदारी है।
यह करने से मुझे ख़ुशी मिलती है और मुझे लगता हैं कि मैं कर्तव्य का पालन कर रहीं हूँ। आख़िर बच्चे का भी तो कुछ कर्तव्य बंता है। हम छोटे हो यह बडे जितना कर सकते हैं उतना तो हमे करना ही चाहिए। मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नही हूँ कि हमे सिर्फ अप्ना कैरियर सुधारना चाहिए। यह हमारे अंदर गलत सिद्धांत डालता हैं। हमे सिखाता है कि काम के इलावा हमे कुछ नहीं करना हैं। नहीं। इंसानियत, बच्चे होने के कारण, बेटे/बेटियाँ के नज़रिये से, और बहन/भाई का भी कर्तव्य निभाना है।

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